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रति और विरतिका फल
रतेररतिमायातः
पुना रतिमुपागतः ।
तृतीयं पदमप्राप्य बालिशो वत सीदसि ॥२३२॥
अर्थ - अज्ञानी तूं विषयनिकी रुचितें अरुचि मैं आवे है । अर बहुरि इन ही तैं रुचि करे है । ऐसें करतें तीसरा पद जो जगततें उदासीनतारूप वैराग्य ताहि पाये बिगरि दुखी है । ऐसा जानि जो तूं कल्याणका अर्थी है तो तूं रागद्वेषकं तजि अर वैराग्यकं भजि ।
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भावार्थ — स्त्रीआदिक विषयनिकूं प्रथम तौ रुचिकरि भोगवे है अर पीछे तत्काल ही अरुचि होय जाय है । बहुरि उनहीसौं रुचि करै है । ऐसै करतै वांछारूप व्याधिते सदा व्याकुल ही रहै है । रुचि अरुचितैं रहित जो वीतराग भाव ताहि न पावता संता खेद खिन्न रहै । तातें राग-द्वेषकूं तजि, समभावकू भजि, जाकरि सुखी होय ।
आगे कहै हैं अनेक दुःखनिकरि तप्तायमान जो तूं सो मोक्षसुखके अभावतैं लवलेश मात्र जो विषय सुख ताकरि आपकूं सुखी माने है सो वृथा है
तावदुःखाग्नितप्तात्माऽयः पिण्डः निर्वासि निताम्भोधौ यावश्वं न
सुखसीकरैः । निमज्जसि ||२३३ || अर्थ — तूं लोहके पिंडकी नांईं दुःखरूप अग्निकरि तप्तायमान हैं सो जो लगि मोक्षके सुखरूप समुद्रविषै मग्न न हो है तो लगि इन्द्रीनिकरि उपजे जे लेशमात्र विषयसुख तिनकरि आपकूं सुखी माने है सो वृथा है । भावार्थ — जैसै लोहके गोलेकूं पूरण जलमैं डबोइए तब ही आतापतें रहित होइ, अर जो लेशमात्र जलतें छांटिये तौ ताप न मिटे, वह जल ही भस्म होइ जाय । तैसें जीवरूप गोला दुःखरूप अग्निकरि तप्तायमान जौ लगि निर्वाणके सुखरूप समुद्रविषै मग्न न होय, तौ लगि दुःखरूप आताप न मिटे । देवपद राज्यपदरूप अल्प सुखकरि सुखी माने है सो वृथा है । इनि सुखनिकरि कदाचि दुःखरूप आताप न मिटै । ए रंचमात्र सुख खिणमैं विलाय जाय ।
आगे है हैं कि निवृत्ति सागरविषै मग्न होना ज्ञानके अंगीकार कीए होइ है तातें ज्ञानादि उपायकरि ताका अंगीकार करहु
मंक्षु मोक्षं सुसम्यक्त्वसत्यंकारस्वसात्कृतम् । ज्ञानचारित्रसाकल्यमूल्येन
स्वकरे
१. तिनकर आपकूं खेदखिन्न करें है । २३३. ५.
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कुरु ।।२३४।।
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