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________________ १५६ आत्मानुशासन उपजावै है, सोखै है । तातें या जगतमें जाहि शत्रु दावे रहे ताहि बाहुल्यता कर शांति कहा होय ? जिनकै रंचमात्र हू शत्रु नाहीं तेई निराबाध जानहूँ । सो ऐसा तौ प्रबल शत्रु है । याके होतें शांतता कहां होय ? भावार्थ - जैसें समुद्र तो अगाध है अर बडवानल अग्नि स्तोक है, तौऊ ताके जलकूं सोर्ष है । सो रंचमात्र हू शत्रुके अभाव विन निराबाधता नांही तौ प्रबल शत्रुके होतें निराबाधता कहातें होय ? तैसें आशाके अभाव बिन निराकुलता कहातें होइ ? अर कदाचित् तूं जानैगा जो मेरै संयमादि गुण प्रबल है, आशा कहा करैगी ? सो ऐसा न विचारना । समुद्रु अति गंभीर था तौऊ ताकूं रंच मात्र हू बडवानल तानै सोख्या । तौ आशा तो तीव्र अग्नि संयमरूप समुद्रकूं सोषे ही सोषै । तातैं आशाका सर्वथा नाश होय सो यत्न करना । 1 आगे है हैं जो तूं आशारूप शत्रुकूं निर्मूल कीया चाहै है तौ सर्वथा मोहका परित्याग करि आर्याछन्द स्नेहानुबद्धहृदयो ज्ञानचारित्रान्वितोऽपि न श्लाघ्यः । दीप इवापादयिता कज्जलमलिनस्य कार्यस्य || २३१ || अर्थ - मोह करि युक्त है हृदय जाका सो पुरुष यद्यपि शास्त्र के ज्ञानकर तथा शुभ आचरण करि मंडित है तौऊ प्रशंसा योग्य नाहीं । जैसें दीप स्नेह कहिए तेल ताकरि युक्त है सो काजलकूं उपजावै है । तैसें स्नेह कहिए रागभाव ताकरि सहित है सो मलिन कार्य जे पापरूप अशुभ कर्म तिनका उपजावनहारा है, ऐसा जानि जगतसूं स्नेह तजना । 1 भावार्थ—जैसैं तेलके संबंध करि युक्त दीपक प्रकाश तो करे है, परन्तु कज्जलरूप कलंकनिकं निपजावे है तैसें तेरा शुभाचरणरूप दीपक राग भावरूप तेल करि युक्त भया पापरूप कलंककूं उपजावै है । तातें देहादिकसूं नेह तजि । जैसै तेल विना अग्नि सदा प्रकाशरूप रहै है अर कज्जलरूप कलंककूं नाहीं उपजावै है तैसें तूं वीतराग भावरूप रहु, जाकरि कर्म कलंक न उपजै । आगे है हैं जगत स्नेह करि बंध्या है चित्त तेरा सो इष्ट अनिष्ट - विषै राग द्वेष करि क्लेशकूं भोगवै है— Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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