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तप और श्रुतकी सार्थकता
पृथ्वीछंद तपः श्रुतमिति द्वयं बहिरुदीर्य रूढं यदा कृषीफलमिवालये समुपलीयते स्वात्मनि कृषिवल इवोज्झितः करणचौरबाधादिभिः ।
तदा हि मनुते यतिः स्वकृतकृत्यतां धोरधीः ।।२२९।। - अर्थ-जैसे किसान क्षेत्रविर्षे बीज बोय करि कणकी वृद्धि करै है । सो चोरादिककी बाधाकरि रहित होय अपने घरमैं अन्य ले करि आवै तब आपकू कृतार्थ मानैं तैसैं साधु तप अरु श्रुतकी वृद्धि करि इन्द्रियादिक चोर तिनकी बाधाकरि रहित आत्मस्वरूपविर्षे लय होय तब आपकं कृतार्थ मानैं। वह किसान ह अपने कर्त्तव्यकी कृतार्थता तब ही मानै जब निराबाध अन्न घर मैं आय परै । अर साधु धीर बुद्धि अपने संयमकी कृतार्थता तब ही मानै जब इंद्रियादिक चोरकी बाधाकरि रहित तप श्रुतरूप बीजका फल ज्ञानरूप कण आपविर्षे लय करै।
भावार्थ-तप श्रुतका फल आत्म-ज्ञान, ताके बाधक इन्द्रियादिक चोर. तिनि” ज्ञान न हरया जाय । अर अपने स्वरूपविर्षे लय होय तब यति आपकू कृतार्थ मानै। जैसे किसान अनेक परिश्रम करि खेती करी है अर निर्विघ्नपणें नाज अपने घरमें ले आवै तब आपकू कृतार्थ जानै । .. आगै कहै हैं कि काहूके मनमैं ऐसा विचार है जो श्रुतज्ञान करि मेरे समस्त अर्थका परिज्ञान है। तातें आशारूप शत्रु मेरा किछ विध्न करवे समर्थ नाहीं। ऐसा जानि आशारूप शत्रुतें निरभय रहना उचित नाहीं । इह श्री गुरु शिष्यकं शिक्षा दे हैं
__शार्दूलविक्रीडितछंद दृष्टार्थस्य न मे किमप्यमिति ज्ञानावलेपादमु
नोपेक्षस्व जगत्त्रयकडमरं निःशेषयाऽशाद्विषम् । .: पश्याम्भोनिधिमप्यगाधसलिलं बावाध्यते वाडवः - क्रोडीभूतविपक्षकस्य जगति प्रायेण शान्तिः कुतः ।।२३०।। - अर्थ-इह आशारूप शत्रु मेरे ज्ञानवंतकै कछू विध्नकारी नाही, या भांति ज्ञानके गवत आशारूप शत्रुकं अल्प न गिनना । जगत्रयका एक अद्वितीय वैरी महा भयकारी आशा शत्रु सर्वथा दूरि ही करना । ताका दृष्टांत कहै हैं-देखो अगाध है जल जाविर्षे ऐसा जो समुद्र ताहि बडवानल बाधा
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