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आत्मानुशासन
तातैं तो भय करना । इंद्री चोर तेरै आसि पासि चौगिरद फिर हैं । तिनकरि न मुसाबै सो यत्न करि । तेरी ज्ञान विभूति वै न ग्रहै सो करि, सदा जाग्रत रहु ।
भावार्थ — जैसैं संसारविषै निर्धन पुरुष हैं ते तौ जाग्रत रहौ वा शयन करौ, तिनकूं चोरनतैं कछू भय नाही, चोर तिनका कहा हैं । अर रत्नयादि धनकरिपूर्ण है तिनकूं चोरनितें सदा सावधान रहना । सावधान न रहै तौ चोरनि मुसावे तैसें अविवेकी जीव तौ रत्नत्रयरूप धन रहित हैं, तिनिक इन्द्रीरूप चोरनिका भय नांहीं । तातैं प्रमादी भए यथेष्ट विषय से हैं । अर तूं रत्नत्रयरूप धनका धारी है । तातैं इन्द्रियरूप चोरनितें सावधान रहु । जो प्रमादी होयगा तो अपना निज धन मुसावैगा ।
आगे कहै हैं जो विषयविषै गया है मोह तेरा सो कमंडलु पीछी आदि संयमोपकरणवर्षं हूं अनुराग मति करे यह शिक्षा दे है
वसन्ततिलका छंद
रम्येषु वस्तुवनितादिषु वीतमोहो किमिति संयमसाधनेषु |
धीमान् किमामयभयात् परिहृत्य भुक्ति पीत्वौषधिं व्रजति जातुचिदप्यजीर्णम् || २२८ ॥
अर्थ - हे बुद्धिमान् ! मनोग्य स्त्री आदि वस्तुनिविर्षं गया है मोह तेरा ऐसा तूं संयमके साधन जे पीछी आदि तिनिविषै वृथा मोह क्यों करे ? जैसे कोऊ रोगके भयतें भोजनकं तजि मात्रा अधिक औषधि लेकर कहा अजीर्ण करै ? कदाचित् न करै ।
भावार्थ - जैसैं कोऊ बुद्धिवान् अजीर्ण के भयतें भोजनकं तजि पाचक • औषध भी मात्रा अधिक न ले । तैसैं ज्ञानी कनक, कामिनी आदि परिग्रहकूं तजि करि संयमके साधन जे कमंडलु पीछिकादिक तिनहूविषै ममत्व न करै । ममत्व है सो बंधका कारण है । अर जो कदाचित् ममत्व करै तौ वीतराग भावकूं न पावै, सरागी होय महाव्रतको भंग करै ।
आगे कहै हैं – सर्व पदार्थनिविषै निर्मोही मुनि या प्रकार आपक कृतार्थ मानै है—
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