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मोक्षका पात्रता ___ १५३
मालिनीछंद समाधिगतसमम्ताः सर्वसावद्यदूराः स्वहितनिहितचित्ताः शान्तसर्वप्रचाराः । स्वपरसफलजल्पाः सर्वसंकल्पमुक्ताः
कथमिह न विमुक्त जनं ते विमुक्ताः ॥२२६॥ अर्थ-भली भांति जान्या है समस्त तजिवे योग्य अर ग्रहण करिवे योग्य वस्तुका स्वरूप जिन, अर हिंसा आदि सब पापनितें दूरि हैं, अर आत्मकल्याणके कारण सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र तिनविर्षे आरूढ है चित्त जिनिका, अर निवृत्ति हो गयौ है सर्व इन्द्रियनके विषय जिनकै, अर वचन ऐसा बोले हैं जिन विष अपना कल्याण अर पर जीवनिका कल्याण, अर सर्व संकल्प विकल्प” रहित है । ते महापुरुष सर्व परपंचनि” रहित क्यों न मुक्तिके भाजन होहिं ? निःसन्देह शिवसुखकै भोजन होहैं।
भावार्थ-जे सर्व प्रपंचन" रहित होंहि तेई मुक्ति होंहि, यह मुक्तिका मूल एक निःप्रपंचपना ही है जे हेयोपादेयकू जानि सब त्याग जोग्य वस्तुनिकू तजि आत्म-कल्याणके कारण जे रत्नत्रय तिनकों ग्रहि करि विषयनित विरक्त होंहि तेई भवसागरकै पार होंहि ।
आगें कहै हैं मुक्ति हुवा चाहै है तू अर मुक्तिकै अर्थि रत्नत्रयका धारण किया है। तौ रत्नत्रयके भंगतै भय करना अर जगतकूविषयासक्त देखि आप विषयासक्त न होना
शार्दूलविक्रीडितछंद दासत्वं विषयप्रभोर्गतवतामात्मापि येषां परः तेषां भो गुणदोषशन्यमनसां किं तत्पुनर्नश्यति । भेतव्यं भवतैव यस्य भुवनप्रद्योति रत्नत्रयं भ्राम्यन्तीन्द्रियतस्कराश्च परितस्त्वां तन्मुहुर्जागृहि ॥२२७॥ अर्थ-विषयरूप प्रभु कहिये राजा ताके दास भावकू प्राप्त भये हैं जे अविवेकी लोक, गुण अर दोषके विचारतें शून्य हैं चित्त जिनका, अर जिनका आत्मा भी पराधीन है तिनकी रीति देखि हो विवेकी ! तू भूलै मति । ते तौ सम्यग्ज्ञानरूप धन करि रहित दरिद्री ही हैं। सो इनिका कहा जाइ ? अर तेरै तीन भवनविर्षे उद्योत करनहारा रत्नत्रय धन है,
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