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आत्मानुशासन यह एक किवदन्ती अवश्य है । पर भदन्त गुणभद्रद्वारा रचित क्या उत्तरपुराण और क्या आत्मानुशासन जिस कृतिपर भी दृष्टिपात करते हैं उसे देखते हए वस्तुतः यह किंवदन्ती किंवदन्ती न रहकर यथार्थताका भान कराने लगती है। वे प्रतिभाके धनी तो थे ही, काव्यकलामें भी वे बेजोड़ थे। पर वे संसारमें डुबानेवाले कुकवि न होकर थे वे संसारसे पार करनेमें समर्थ सुकवि ही। विवेचकोंको इसी दष्टिसे उनके द्वारा रचित समग्र साहित्यका और खासकर आत्मानुशासन ग्रन्थका अवलोकन करना चाहिये। लोककी दृष्टिमें भले ही यह उकृष्ट काव्य निरूपित किया जावे, पर मेरी दृष्टिमें तो यह एक वनवासी वीतराग सन्तके द्वारा उच्छ्वसित होकर मोक्षका सोपानरूप ही प्रतीत होता है । जो भी आसन्न भव्य इसके हादको समझकर तदनुरूप प्रवृत्ति करेगा वह नियमसे आत्मस्वातन्त्र्यका उपभोक्ता बनकर मोक्षका अधिकारी होगा इसमें सन्देह नहीं। इस प्रकार मूल ग्रन्थका सामान्य अवलोकन करनेके बाद आगे उसमें वर्णित प्रत्येक प्रमेयपर संक्षेपमें विचार करेंगे।
१. मङ्गलाचरण नियमानुसार मंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम और कर्ताका व्याख्यान करके ही शास्त्रका व्याख्यान करना चाहिये' यह गरुपर्वक्रमसे आई हुई सम्यक परम्परा है । तदनुसार भदन्त गुणभद्रने भी ग्रन्थके आदिमें अपने हृदयपटल पर अन्तिम तीर्थकर्ता भगवान् वीर (वर्धमान) जिनको अवतरित कर जहाँ आद्य पद्य में उन्हें द्रव्य-भाव नमस्कार किया है वहीं उस ग्रन्थके नाम और हेतुका भी उल्लेख कर दिया है। अविनाभाव सम्बन्धवश शेष तीनका ग्रहण इसीसे हो जाता है। इतना अवश्य है कि आत्मानुशासनके संस्कृत टीकाकारने अपनी टीकाके प्रारम्भमें मंगलसूत्रकी व्याख्या करते हुए यह अभिप्राय अवश्य ही व्यक्त किया है कि भदन्त गणभद्रने विषयासक्त बृहत् धर्मबन्धु लोकसेनको लक्ष्यकर वैराग्योत्पादक इस ग्रन्थकी रचना की है। आगे भदन्त गुणभद्रने प० २ में जो यह भाव
१. मंगल-णिसित्त-हेऊ परिमाणं णाम तह कत्तारं । वागरिय छप्पि पच्छा
वक्खाणउ सत्थमायरिओ । ध० पु० १ पृ० द्वि० सं० । २. णिस्संसयकरो वीरो महावीरो जिणुत्तमो। राग-दोस-भयातीदो धम्म
तित्थस्स कारओ । ज० ध० भा० १, पृ० ६५ द्वि० सं० । ३. वृहद्धर्मभ्रातुर्लोकसेनस्य विषयव्यामुग्धबुद्धे : संबोध नव्याजेन""आ० शा०
पृ० १, सो० सं० ।
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