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________________ प्रस्तावना व्यक्त किया है कि सभी संसारी प्राणी दुःखसे डरते हैं और सुखकी कामना करते हैं, उससे प्रतीत होता है कि भदन्त गुणभद्रने इस द्वारा दुःखापहारी सुखकर शिक्षाका अनुशासन करनेके अभिप्रायसे ही वैराग्योत्पादक इस ग्रन्थकी रचना की है। इसी वातको स्पष्ट करते हुए भय छुड़ानेके अभिप्रायसे वे प० ३ में पुनः कहते हैं कि जिस प्रकार आतुर मनुष्य उग्र औषधिके सेवनसे भय नहीं करता उसी प्रकार प्रत्येक भव्य प्राणीको वर्तमानमें कठिन प्रतीत होनेवाले किन्तु फलकालमें मधुर इस आत्माके अनुशासनको हृदयसे स्वीकार करना चाहिये। २. धर्मकथा कहनेका अधिकारी गणी धर्म रत्नत्रयस्वरूप है यह सर्वजन सुप्रसिद्ध है। उसकी कथा करनेके अधिकारी वाचाल मनुष्य तो हो ही नहीं सकते, जो अन्तरंगमें धर्म बुद्धिसे रहित हैं, मात्र दूसरोंको उपदेश देने में उन मेघोंके समान कुशल हैं जो मात्र गरजते बहत हैं, बरसते नहीं। उनके द्वारा की गई धर्मकथा शस्यश्यामला उर्वरा भूमिमें ओलै बरसनेके समान प्रतीत होती है। इससे सद्धकर्मका प्रचार न होकर मात्र पक्षका ही पोषण होता है। ऐसी अवस्थामें धर्मकथा करनेवाला व्यक्ति कैसा होना चाहिये इस विषयकी चर्चा करते हुए भदन्त गुणभद्र कहते हैं जो प्राज्ञ हो, जिनागमकी थाहको जिसने स्पर्श कर लिया हो, लोकरीतिको समझनेवाला हो, जिसकी परिग्रहसम्बन्धी तृष्णा शान्त हो गई हो, जो श्रोताके अभिप्रायको पहलेसे ही जानकर उसके अभिप्रायको शास्त्रानुकूल मोड़नेमें समर्थ हो, प्रश्न सुन कर घबड़ाये नहीं, हित, मित और प्रिय वचन बोलनेवाला हो ऐसा गणी धर्मकथा करने का अधिकारी होता है, अन्य नहीं यह इसका भाव है ( गा० ४-५ )। प्रसंगसे यहाँ हमें यह स्वीकार करनेमें थोड़ा भी संकोच नहीं होता कि इस समय जो अनधिकारी पुरुषों द्वारा धर्मकथा करनेकी परम्परा चल पड़ी है उससे शास्त्र सभाकी मर्यादामें जितनी बाधा पड़ी है उतनी इससे पहले कभी नहीं पड़ी होगी। ___ जहाँ तक आगमके आलोडनसे तो यही पता चलता है कि प्राचीनकालमें जो रत्नत्रयधारी वीतराग सन्त होते थे वे ही गाँव-गाँव जाकर धर्मकथा द्वारा हित उपदेश देकर भव्य जीवोंको मोक्षमार्गमें लगाते थे। लगता है कि मुनियोंके वनवासी जीवन तक तो यही परम्परा चलती रही। किन्तु जब मुनियोंने एकान्त वनवासके जीवनसे ऊबकर कोलाहलप्रधाननगरों और ग्रामों तथा उनके मन्दिरों आदिमें रहना प्रारम्भ कर दिया तबसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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