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प्रस्तावना
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साथ ही यह अपूर्व नीतिका भी ग्रन्थ है । नीतिशास्त्रकी दृष्टिसे वादीभसिंहसूरिकृत क्षत्रचूड़ामणिकी लोक में जितनी प्रसिद्धि है उससे इसकी प्रसिद्धिको कम नहीं आंका जा सकता । इसमें आई हुई कतिपय नीतियोंपर दृष्टिपात कीजिये -
१. कामक्रोधमहाग्रहाहितमनाः किं किं न कुर्याञ्जनः ॥ ५१ ॥ २. निस्सारं परलोकबीजमचिरात् कृत्वेह सारीकुरु ॥ ८१ ॥ ३. प्रायः कुतो व्यसनिनां स्वहिते विवेकः ॥९३॥
४. सर्वापदां पदमिदं जननं जनानाम् ||१८||
५. मा वमीत किं जुगुप्सावान् सुभुक्तमपि भोजनम् ॥१०३॥ ६. स कस्त्यक्तु ं नालं खलजनसमायोगसदृशम् ||१०५॥
७. नरो न रमते कथं तपसि तापसंहारिणि ॥ ११४ ॥ ८. तपस्यन्ति चिरं तद्धि ज्ञातं ज्ञानस्य वैभवम् ॥ ११६ ॥ ९. यदि प्रकोष्ठमादाय न स्याद्धोधो निरोधकः ॥११७॥ १०. अहो केनाप्यस्मिन् विलसितमलंध्यं हतविधेः ॥११९॥ ११. सन्ध्याराग इवार्कस्य जन्तोरभ्युदाय सः ॥ १२३॥ १२. रविवद्रागमागच्छन् पातालतलमृच्छति ।।१२४॥ १३. प्रायेण सेर्ष्याः स्त्रियः ||१२८||
१४. स्त्रियो हि विषमं विषम् ॥ १३५ ॥
१५. मदनमधुमदान्धे प्रायशः को विवेकः ।। १३६ ।।
१६. रवेरिवारविन्दस्य कठोराश्च गुरूक्तयः ॥ १४२ ।।
इस प्रकार हम देखते हैं कि यह समग्र ग्रन्थ सूक्तियों का आकर है । कहते हैं कि आचार्य जिनसेनने अपने वर्तमान जीवनकी सन्निकटता जानकर अपने अवशिष्ट साहित्य कार्यको सम्पन्न करनेके अभिप्राय से अपने प्रिय दोनों शिष्यों को आमन्त्रितकर कहा कि सामने जो शुष्क वृक्ष (ठूंठ) खड़ा है, कविता द्वारा उसकी अभिव्यक्ति दूसरोंसे तुम किन शब्दों में करोगे । यह सुनकर एक शिष्यने उसकी अभिव्यक्ति ' शुष्कः काष्ठः तिष्ठत्यग्रे' इन शब्दोंमें की और दूसरेने इसी बातको 'नीरसतरुरिह विलसति पुरत:' इन शब्दोंमें व्यक्त किया । यतः दूसरे जिस शिष्यने कर्णमधुर अतएव कोमल और सरस पद द्वारा अपने गुरुद्वारा कहे गये वाक्यको अनूदित करके दुहराया था, अतः गुरुने अपने अवशिष्ट रहे साहित्यिक कार्यको सम्पन्न करनेके लिये उपयुक्त समझकर उसे ही पूरा करनेकी अनुज्ञा दे दी । उनका वह दूसरा शिष्य और कोई नहीं, भदन्त गुणभद्रसूरि ही थे ।
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