________________
२
आत्मानुशासन
हुआ था | प्रकाशक स्व० श्री पं० इन्द्रलालजी शास्त्री जयपुर हैं । अब यह प्रति उपलब्ध न होने से प्रस्तुत संस्करणको प्रकाशित किया जा रहा है |
(३) जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुरसे प्रकाशित तीसरी प्रति है । पद्योंके संशोधनमें इस प्रतिका भरपूर उपयोग किया गया है, क्योंकि इसमें सभी पद्य संशीधित करके शुद्धरूपमें ही मुद्रित किये गये हैं । इसका मुद्रण वि० सं० २०१८ में हुआ था । विस्तृत प्रस्तावना और परिशिष्ट आदि देकर इसे सर्वांग सुन्दर बनाया गया है । पृष्ठ संख्या ११२ + २६० = कुल ३७२ है । यह १६ पेजी डेमी साईजमें मुद्रित हुई है | अनुवादक श्री पं० बालचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री हैं । फिर भी अनुवादकके रूपमें उनके नामका उल्लेख नहीं किया गया है । इसे पश्चिमीय प्रभाव ही मानना चाहिये । दुर्भाग्य है कि जैन संस्थाएं भी इसका अन्धानुकरण करनेमें अपनेको गौरवका अनुभव करती हैं । ग्रन्थमाला सम्पादकोंका काम प्रायः कुछ भी नहीं रहता, फिर भी वे संस्थाको प्रबन्ध समितिकी कृपासे अपनी प्रभाव वृद्धिमें उसका भरपूर उपयोग करते रहते हैं । २. मूलग्रन्थ
अमूल्य शिक्षाओंसे भरपूर यह भदन्त गुणभद्रसूरिकी अमर कृति है । धर्म की दृष्टिसे यह उत्कृष्ट धर्मशास्त्र प्रतीत होता है । क्योंकि देखनेपर इसकी उत्कृष्ट धर्मशास्त्रमें तो परिगणना होती ही है । हमें इससे वे सब शिक्षाएँ भी मिल जाती हैं जो धर्मशास्त्रका प्रधान अंग बनी चली आ रही हैं । उन शिक्षाओंपर थोड़ा दृष्टिपात कीजिए
(१) पहले जो जो आचरण किया है वह सब ज्ञानियोंकी दृष्टिमें अज्ञान जति चेष्टाऐं ही प्रतिभासित होती हैं । (२) गुणोंमें द्वेषरूप परिणामका होना पाप है और पुण्य उससे विपरीत है । किन्तु जो न तो पुण्यरूप परिणाम करता है और न पापरूप ही परिणाम करता है वह नियमसे मुक्त होता है । (३) यह ज्ञानभावनाका ही फल है कि ज्ञानी पुरुष धर्मका बाह्य साधन जानकर शरीर की यथायोग्य सम्हाल करते हुए भी उत्कृष्ट वैराग्य सम्पत्तिको जीवनका अंग बनाये रखते हैं । (४) जो उदयागत कर्मके अधीन बरतते हैं वे नियमसे संसारी हैं । किन्तु जो तपश्चर्याके बलसे पीछे उदयमें आनेवाले कर्मको उदयमें लाकर भी उसके फलको नहीं अनुभवते, ज्ञानबलसे उसकी निर्जरा कर देते हैं वे ही संसारविजयी बनकर परमार्थके भागी होते हैं | आदि ।
१. आ० शा० प० २५१ । २. वही १८१ । ३. वही ५० ११६ ॥ ४. हो ० २५७ ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org