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आत्मानुशासन अपनी बराबरिके विर्षे कर्मनिके वशर्ते अदेखसका भाव होइ है । जाहि शास्त्रविर्षे मात्सर्या कहै हैं सो अति दुर्जय है, ताहि तूं तजि ।
भावार्थ-जो तूं तपस्वी है, मंदकषायी है, गंभीरचित्त है तौ मत्सर कहिए अदेखसका भाव तजि । अपनी बराबरि तथा अधिकविर्षे अदेखसका भाव मति करै । इह बड़ा दोष है, तू सर्वथा तजि।।
आगै कोऊ प्रश्न करै है-इनि कषायनिके होते संतै जीवका कहा अकल्याण है ? ताहि उत्तर कहै हैं-जहां काम क्रोधादिकका उदय होइ सो ही जीवका अकल्याण । इह कथन दृष्टांतकरि दृढ़ करै हैं। प्रथम ही क्रोधके उदयविर्षे अकल्याण दिखावै हैं
वसन्ततिलका छन्द चित्तस्थमप्यनवबुद्धय हरेण जाड्यात् क्रुद्ध्वा बहिः किमपि दग्धमनङ्गबुध्या। घोरामवाप स हि तेन कृतामवस्था क्रोधोदयाद्भवति कस्य न कार्यहानिः ॥२१६॥ अर्थ-देखो काम तौ चित्तविर्षे हुता बाह्य न हुता। अर काहू. क्रोधकरि काम जानि कोऊ बाह्य पदार्थ भस्म कीया सो काम न मूवा । कामके योगरौं सराग अवस्थाकू प्राप्त भया । कामकी करी घोर वेदना सही सो क्रोधके उदयतें कौनकै कार्यकी हानि न होइ ? . . भावार्थ-क्रोधके उदयतें सर्व कार्यका नाश होय । काह. कोऊ बाह्य पदार्थ काम जानि भस्म कीया सो काम न मवा, सो क्रोधी कामकरि पीडित ही भया । आगै मानके उदयविर्षे अकाज दिखावै है
___वसन्ततिलकाछंद चक्र विहाय निजदक्षिणबाहुसंस्थं यत् प्राव्रजन्ननु तदैव स तेन मुञ्चेत् । क्लेशं तमाप किल बाहुबली चिराय
मानो मनागपि हतिं महतीं करोति ।।२१७।। .. अर्थ-देखो बाहुबली अपनी दाहिणी भुजापरि आय तिष्ठया जो चक्र ताहि तजि करि जिन दीक्षा आचरी । तपकरि संसार” मुक्त भए। परंतु कैयक दिन कछुइक संज्वलनमानका उदय रह्या, ताकरि वर्ष पर्यंत केवल
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