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धन आदि सुखके कारण नहीं
शार्दूलविक्रीडित छंद हित्वा हेतुफले किलात्र सुधियस्तां सिद्धिमामुत्रिकी वाञ्छन्तः स्वयमेव साधनतया शंसन्ति शान्तं मनः।
तेषामाखुबिडालिकेति तदिदं धिग्धिक् कलेः प्राभव - येनैतेऽपि फलद्व यप्रलयनाद् दूरं विपर्यासिताः ॥११४।।
अर्थ-जे कहिवेके सुबुद्धी या भवविर्षे हेतु कहिये कारण निष्परिग्रहत्वादि, अर फल कहिये कार्य मनकी शांतता तिनकं तजिकरि परलोककी सिद्धि वांछे हैं अर आप ही अपने मन उपंग साधनकरि अपनी प्रशंसा करै हैं, कषायनिके वशि हैं। अर जानै हैं हम शांतचित्त हैं सो यह बड़ा विरुद्ध है। क्रोधादिकमैं अर उपशांततादि गुणनिमैं परस्पर बैर है । जैसे बिलाव और मूसेकै अनादिका परस्पर बैर है। तारौं बारंबार धिक्कार होहु कलिकालके प्रभावकू । जाके प्रभावकरि सुबुद्धीहू इहलोक-परलोकका फल ताके विनाश करवे” अत्यंत ठिगाये गये हैं। ____ भावार्थ-जे कषाय तर्जे बिनु शांत चित्त कहावै हैं ते वृथा ही अपनी प्रशंसा करै हैं । कषायनिकै अर शांतताकै परस्पर विरोध है । जे बुद्धिवान कहाय आत्मा-कल्याण न करें ते दोऊ जन्म बिगाडै हैं, अत्यंत ठिगाये हैं । __ आगै श्री गुरु शिष्या शिक्षा करै हैं:-जो तू महातप अर ज्ञानकरि संयुक्त है, अर कषायनिका जीतनहारा है तौ अहंकारका लेशहू मति करि, अहंकारकू मूलतें उपारि डारि ।
स्रग्धराछंद उद्युक्तस्त्वं तपस्यस्यधिकमभिभवं त्वामगच्छन् कषायाः । प्राभूद्बोधोऽप्यगाधो जलमिव जलधौ किं तु दुर्लक्ष्यमन्यैः। नियंढेऽपि प्रवाहे सलिलमिव मनाग् निम्नदेशेष्ववश्यं
मात्सर्य ते स्वतुल्ये भवति परवशाद् दुर्जयं तज्जहीहि ॥२१५।। ___ अर्थ-तू तपविर्षे उद्यमी भया है, अर तो कषाय अति अपमानकू प्राप्त भये हैं, अर समुद्रविर्षे जल अगाध होय तैसैं तेरै ज्ञान अगाध भया है। परंतु एक तोहि शिक्षा करै हैं—यह बात औरनिकरि अगम्य है । या दोष' विरले तजैं। जैसैं जलके प्रवाहविर्षे तुच्छ हू नीचे स्थानकविर्षे जंल निःसन्देह औंडा होय है सो गढ है। लोकनिके जानवेमैं नांही तैसें
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