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आत्मानुशासन आगैं कहै हैं पूर्वं जाका वर्णन कीया सो शरीर ऐसा है तौ ताविर्षे ममता बुद्धिकरि आसा क्यौं धरनी
माता जातिः पिता मृत्युराधिव्याधी सहोद्गतौ ।
प्रान्ते जन्तोर्जरा मित्रं तथाप्याशा शरीरके ॥२०१।। अर्थ-कैसा है शरीर ? उत्पत्ति तौ जाकी माता है, अर मरण जाका पिता है। अर आधि कहिये मनका सोच, व्याधि कहिए वायु पित्त कफ आदि रोग, ए ही जाके भाई, अर अंतविर्षे जरा मित्र है। शरीर तो ऐसा है तथापि शरीरविर्षे तेरी आशा है, बड़ा अचिरज है।
भावार्थ-शरीर तौ जन्म-मरण, आधि, व्याधि, जरारूप है। अर तूं तो अजर अमर अनादि निधन अखंड अव्याबाध है। तेरा अर याका कौन संबंध।
आगैं कहै हैं तूं तो शुद्ध बुद्धस्वरूप है, परंतु शरीरकरि अशुद्धताकू प्राप्त भया है
वसंततिलकाछंद शुद्धोऽप्यशेषविषयावगमोऽप्यमृर्तो प्यात्मन् त्वमप्यतितरामशुचीकृतोऽसि । मूर्त सदाऽशुचि विचेतनमन्यदत्र किं वा न दूषयति धिग्धिगिदं शरीरम् ।।२०२॥
अर्थ-हे चिदानंद ! तूं तो शुद्ध कहिए निर्मल है । अर समस्त निजपरका ज्ञाता है । अमूर्तिक है तौऊ या जड़. तोहि अशुचि कीया। यह मूर्तिक सदा अशुचि अचेतन संसारविर्षे जे केशर कर्पूरादि सुगंध वस्तु हैं तिनहूंकू दुगंध करै है । तार्तं धिक्कार धिक्कार या शरीरकू ।
भावार्थ-जे केशर कर्पूरादि सुगंध द्रव्य हैं तेऊ शरीरके संबंध दुर्गंध होय जाय हैं। याकै संबंतें तूं महा दुखी भया, चार गतिके दुःख भोगये, अशुचि अपावन देहका धारण करि तूं अशुचि कहाया । तातँ यासू प्रेम तजि । धिक्कार या शरीरकू जाके प्रसंग करि तूं संसार वनविर्षे भ्रम्या । __ आगें कहै हैं या शरीरविर्षे तू अनुराग बुद्धिकरि नष्ट भया निदि शरीरकं अनिंद्य जान्या
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