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रोगकी वृद्धि मुनिके लिये खेदजनक नहीं १४३ हा हतोऽसि तरां जन्तो येनास्मिस्तव सांप्रतम् । ज्ञानं कायाशुचिज्ञानं तत्यागः किल साहसम्ः ॥२०३।। अर्थ-हाय ! हाय ! हे प्राणी ! तू अत्यंत ठिगाया, नष्ट भया, शरीरके ममत्व करि अति दुखी भया । कायाका अशुचि जानना यही ज्ञान है अर शरीरकू पवित्र जाननां यही अज्ञान है । शरीरका ममत्व छोड़ना, निरादर करि तजना यही बड़ा साहस है।
भावार्थ-अनादि कालतें अपना स्वरूपकं तें न जान्या, परकौं आपा मानि नष्ट भया। शरीर अशचि तुं महा पवित्र । तेरा अर याका कहा संबंध? तातें देहसूं नेह तजि निर्ममत्व होहु, ज्यौं बहुरि शरीरका धारण न करै ।
आगै कहै हैं कि यद्यपि साधुकै शरीरसं ममत्व नाही, तथापि प्रबलरोगके उदयतें चित्तविर्षे व्याकुलता होती होयगी । श्लोक दोयमें वह ब्याख्यान करै हैं
अपि रोगादिभिवृद्धैन मुनिः खेदमच्छति । उडुपस्थस्य कः क्षोमः प्रवृद्धेऽपि नदीजले ।।२०४॥
वसंततिलकाछंद जातामयः प्रतिविधाय तनौ वसेद्वा नो चेत्तनुं त्यजतु वा द्वितयी गतिः स्यात् । लग्नाग्निमावसति वह्निमपोह्य गेहं निर्याय वा व्रजति तत्र सुधीः किमास्ते ॥२०५॥ अर्थ-रोगादिककी वृद्धिहूकरि मुनि खेदकू प्राप्त न होय । जैसैं नदीका जल वृद्धि प्राप्त भया तथापि दृढ़ नावविर्षे तिष्ठया ताकू कहा विकल्प ? तैसै ज्ञानी मुनिनिकू रोगादिककी वृद्धिहूविर्षे कहा विकल्प ? अर अणुव्रती श्रावक कदाचि रोग उपज्या तौ निर्दोष औषधाादिकके योगरौं शांति करि शरीरविौं बसे । अर प्रबल रोगकी शांतता न जानै तौ अनशन वृत्ति करि शरीरकू तजै । ए दोय ही रीति । जैसैं घरकै अग्नि लागी तब सुबुद्धी ताहि बुझाय घरमैं बसै, अर बुझता न जानैं तौ घर छोडि दूर जाय बसै । तैसें शरीर रहतो जानैं तो योग्य औषधादिक करि रोगकी निवृत्ति करै, अर रहता न जानै तौ निर्ममत्व होय तजै । __ भावार्थ-श्रावक की तौ दोय रीति हैं। पवित्र औषधादिकका सेवन करै, तथा न भी सेवन करै । अर साधु इच्छा करि तौ औषधका सेवन न
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