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परद्वव्यमें मूर्छा ही संसारका कारण
१४१ -- अर्थ है भव्य जीव ! तूं या शरीरके होतें संतै अपना अर्थ जो शुद्धोपयोगरूप आत्मकल्याण, अथवा पंच महाव्रत यतिका धर्म तथा अणुव्रतरूप श्रावकका धर्म ताके नाशकू न गिणता संता अपमानकै सैंकरानि करि स्त्री संयोगकं प्राप्त भया सो इह स्त्रीका संबंध ही महादुःखका मूल है। कैसा है तं, तज्या है लज्जा अर अभिमान जानैं । इहां अभिमान शब्दका अर्थ गर्व न लेना, जाची वृत्ति लेनी । सो तूं स्त्रीके संगरौं निर्लज्ज अर जाचक भया जा समान दीनता नांही। सो तै तौ शरीरकै अथि अपना अर्थ खोया, अर यह तौ तेरे संगि एक पैंड न जाय । सो तं ऐसा कहा ठिगाया है जो बाम्बार याहीसू प्रीति करै है । अब तोहि कहै हैं जो बुद्धिवान है तौ शरीररां प्रीति मति करै। - भावार्थ-तूं तौ शरीरका नाना प्रकार पोषण करै है, अर याकै संगतै स्त्रीका अनुरागी होय निर्लज्ज अर दीन भया है। अर शरीर तौ तेरै साथि एक पैंड न जाय । ता” हे भव्य ! तूं या देहतैं नेह तजि अर देहके प्रसंगी हैं पुत्र कलत्रादि, तिन” प्रीति तजि । ___ आगें कहै हैं जे मूर्तीक पदार्थ हैं तिनिहूमैं परस्पर मिलाप होतें भी भेद न मिटै है । काहूका लक्षण काहूसू न मिलै । तौ मूर्तीक अर अमूर्तीक कैसैं एक होंहिगे । यह तेरे प्रतीति न आवै सो बड़ी भूलि है
शिखरणीछंद न कोऽप्यन्योऽन्येन व्रजति समवायं गुणवता गुणी केनापि त्वं समुपगतवान् रूपिभिरमा । न ते रूपं ते यानुपव्रजसि तेषां गतमतिः ततश्छेद्यो भेद्यो भवसि बहुदुःखे भववने ।।२०।। अर्थ-कोई ही गुणी कहीये द्रव्य सो काहू ही द्रव्यसौं एकताके भाव न प्राप्त होय यह प्रत्यक्ष है। अर तूं कर्मके योगकरि रूपी पदार्थनिसू ममत्त्व भावकं प्राप्त भया जिन शरीरादि पदार्थनिकरि त आशक्त होइ एकता जानि प्रवर्त्या है ते पुद्गल तेरे रूप नाहीं! तूं तो निर्बुद्धी हुवा वृथा ही एकता मान है। या अभेद बुद्धिकरि तिनिसं आशक्त भया भववनविष बहुत दुखी होयगा, छेद्या जायगा, भेद्या जायगा, भव भव दुःख भोगवैगा, तातें देहादिकसं नेह तजि । __ भावार्थ-रूपी पदार्थ जे परमाणू तेऊ सब भिन्न हैं। यद्यपि मिलिकरि बंधरूप होय हैं। तथापि न्यारे-न्यारे हैं। तो तूं अमूर्तीक पदार्थ तोसौं ए कैसैं मिलै अर तूं इनसौं कैसे मिलै । ता” इनसौं राग तज ।
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