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आत्मानुशासन आर्गे कहै हैं शरीरकं तपादिककरि पीरा उपजावते हू मुनि कलिकालके दोषः पर्वतकी गुफादिक कायक्लेशके स्थानक तिनक तजिकरि ग्रामकै समीप आय बसै हैं ऐसा दिखावै हैं
इतस्ततश्च त्रस्यन्तो विभावयाँ यथा मृगाः । वनाद्विशन्त्युपग्रामं कलौ कष्टं तपस्विनः ॥१९७।।
अर्थ-जैसैं मृग दिनकू वनमैं जहां भ्रमणकरि सिंहादिकके भयतै रात्रिविर्षे वनसैं ग्रामके समीप आय रहै हैं तैसैं कलिकाल विर्षे मुनि हू दिन विर्षे वन निवास करि ग्रामकै समीप आवै रात्रिकू सो हाय ! हाय ! यह बडा कष्ट है। मुनि महा निर्भय, तैं मृगनिकी नांई ग्रामके समीप कैसे आइ बसैं ? ___भावार्थ-मृगनिकी यह रीति है-दिनकुं वनविर्षे विचरै हैं अर
रात्रिकू ग्रामकै निकटि आइ बसें । तैसैं दुःखम कालविर्षे मुनि हू रात्रिविष ग्रामकै समीप निवास करें यह बड़ा दोष है। मुनिनिकू गिरि-शिखर गुफा विषम बन नदीनिके तट इत्यादि निर्जन स्थानक ही विर्षे रहना योग्य है ।
आगें कहै हैं कि तपहूकू ग्रहकरि जे इन्द्रिनिकै वशीभूत होय हैं तिनतें गृहस्थ अवस्था ही श्रेष्ट है
वरं गार्हस्थ्यमेवाद्य तपसो भाविजन्मनः । श्वः स्त्रीकटाक्षलुण्टाकलोप्यवैराग्यसंपदः ॥१९८।। अर्थ-या जगतविर्षे स्त्रीनिके जो कटाक्ष तेई भये लुटेरे, तिनकरि वैराग्य संपदा लुटाय दीन भयो अर होनहार है संसार भ्रमण जातें, ऐसे तप” गृहस्थपना ही श्रेष्ठ है।
भावार्थ-गृहस्थ अवस्थाविर्षे तौ निज स्त्रीका तो सेवन है ही। अर जे तपकं धारिकरि नगरके स्त्रीनिकौ नेत्रनिके जो कटाक्ष, तेई भए लुटेरे, तिनकरि लूटि गई है वैराग्य संपदा जिनकी ऐसे तप गृहस्थ अवस्था ही श्रेष्ठ जाननी । यह तप संसार ही का कारण है। ___ आगें कहैं हैं:-या शरीरके योग” तूं स्त्रीका अनुरागी होय दुखी भया सो शरीर तेरी लार एक पैंड न जाय, तातै शरीरादिकसूं स्नेह तजि
मंदाक्रांत छंद स्वार्थभ्रंशं त्वमविगणयंस्त्यक्त लज्जाभिमानः संप्राप्तोऽस्मिन् परिभवशतैर्दःखमेतत् कलत्रम् । नान्वेति त्वां पदमपि पदाद्विपलब्धोऽसि भूयः सख्यं साधो यदि हि मतिमान् मा ग्रहीविग्रहेण ॥१९९।।
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