________________
विषय विषके समान हैं
१३९ वसन्ततिलकाछंद आदौ तनोर्जननमत्र हतेन्द्रियाणि काङ्क्षन्ति तानि विषयान् विषयाश्च मानं । हानिप्रयासभयपापकुयोनिदाः स्युः मूलं ततस्तनुरनर्थपरम्पराणाम् ॥१९५।। अर्थ-प्रथम ही शरीरको उत्पत्ति हो है। ता शरीरविर्षे ए दुष्ट इंद्रिय विषयनिकू वांछै हैं । अर ते विषय महंतताकी हानि करै हैं। अर महाक्लेशके कारण हैं। बहरि भयके देनहारे अर पापके उपजावनहारे, नर्क निगोदादि कुयोनिके दायकी हैं। तातै यह शरीर ही अनर्थकी परंपरायका मूल कारण है।
भावार्थ-संसारदशाविर्षे यह जीव पूर्व शरीरकू तजि नवीन शरीरकू धारै है, सो शरीरविर्षे ए दुष्ट इंद्रिय अपने-अपने विषयनिकू बांछे हैं । अर ते विषय अपमानके कारण क्लेशके कर्ता, भयकारी, पापके उपजावनहारे, कुगतिके देनहारे हैं । तातें यह शरीर ही अनर्थकी परम्परयका मूल कारण जानना।
आगें कहै हैं कि ऐसे शरीरकू पोषिकरि अज्ञानी जीव कहा करै सोई कहै हैं
शरीरमपि पुष्णन्ति सेवन्ते विषयानपि । नास्त्यहो दुष्करं नृणां विषाद्वाञ्छन्ति जीवितुम् ॥१९६।। अर्थ-अहो लोको ! मूर्ख जीव कहा कहा न करै । शरीरकू तौ पौषै, अर विषयनिकू सेवै । मूर्खनिकू कछू विवेक नांही, विषयतै जीया चाहै । अविवेकीनिकू पापका भय नाही, अर विचार नाही, बिनां विचारे न करने योग्य होय सो करें ।
भावार्थ-जे पंडित विवेकी हैं ते शरीरसं अधिक प्रेम न करें । नाना प्रकारकी सामग्री करि याहि न पोएं । अर विषयनिकू न सेवे, अकार्यतै डरै । अर जे मूढ जन हैं ते शरीरकू अधिक पोर्षे, अर विषयनिकू सेवें, न करिवे योग्य कार्यकी संका न करें । जे विषयनिकू सेवै हैं ते विष खाय जीया चाहै हैं।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org