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आत्मानुशासन
अर्थ – हे आत्मन् ! आत्मज्ञानके लोपनहारे जे विषय कषायादिक तिनकी प्रवृत्तिरि चिरकाल दुराचारी भया । अर जब तूं आत्माके सम्पूर्ण कल्याणके कारण ज्ञान-वैराग्यादिक अपने निजभाव तिनिकूँ अंगीकार करे तब तिनके 'अंगीकार करिवे करि श्रेष्ठ आत्मा है । आत्मा ही पावै जाकौं ऐसी जो परमात्मदशा, ताहि होत संता केवलाज्ञानस्वरूप भया थका आपकरि उपज्या जो आत्मसुख ताविषै शोभायमान हुवा था, अपने शुद्धात्मभावकरि अपने अध्यात्मस्वरूपविर्षं तिष्ठगा ।
भावार्थ - जब लग तेरै बहिरात्मदशा है तब लग विषय - कषायनिके सेवनकरि दुराचारी है । अर जब सकल कल्याणरूप ज्ञान-वैराग्यादिकका आचरण करै तब अंतरात्मा होयकरि परमात्मपद पावै । तहां केवलज्ञानरूप भया संता अनंत सुखविषै निश्चल तिष्ठै है |
आगें कहै हैं कि या जीवकूं सदाकाल दुखका कारण शरीर है ताके अभाव निमित्त शास्त्रोक्त विधिकरि यत्न करनां योग्य है
पृथ्वीछंद
अनेन सुचिरं पुरा त्वमिह दासववाहित - स्ततोऽनशन सामिभक्तरस वर्जनादिक्रमैः । क्रमेण विलयावधि स्थिरतपोविशेषैरिदं कदर्थय शरीरकं रिपुभिवाद्य हस्तागतम् || १९४||
अर्थ – या जगतविषै या शरीरनैं तोकुं आगें अनंत काल दासकी नांई भ्रमायो, तातैं अब तूं उपवास अर अल्प आहार तथा रसपरित्यागादि विधिरूप तपके विशेषकरि निरन्तर अनुक्रमतें मरणपर्यंत याहि क्षीण करि जैसैं कोऊ हाथि आये शत्रुकूं क्षीण पारे ।
भावार्थ - आगैं या शरीरनैं तोकूं अनंत काल दासवत् भव-भवविषै अटकाया । अर तै याके संबंधतें अनेक दुःख पाये । तातै अब तूं जैसे कोऊ हाथि आये वैरीकूं क्षीण पारै तैसें तूं नानाप्रकार तपकरि या शरीरकूं क्षीण पारि ।
आगें कहै हैं कि या संसारविषै जो कछू अनर्थकी परम्पराय है ताका मूल कारण यह शरीर है, तातैं शास्त्रोक्त तप करि याहि क्षोण पारि ।
१. अंगीकारकरि श्रेष्ठ आहे. ज. पु. १९३.४
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