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हितचिन्तनका फल विषयविरक्ति १३७ भावार्थ-अज्ञानी जीव लोकनिकू शृंगारादि सहित देखिकरि विषयनिकी वांछा करै है सो तूं कदाचित् मति करै । यह अल्प हू अभिलाष तोहि महादुःखका कारण है। जैसैं कोऊ रोगी सचिक्कण वस्तुका किंचित् हू सेवन करै ताकै रोगकी अतिवृद्धि होइ । सो रोगीनिक सचिक्कण वस्तुका सेवन उचित नाही । तैसै विवेकीनिकू विषयाभिलाष उचित नाही। ___ आगै कहै हैं जीव मात्र है तिनिकै दुख-दायक वस्तुनिसू अरुचि होय है सो ए विषय तेरै भव-भवके दुखदाई तिनिविर्षे तोहि अभिलाष करना कैसैं योग्य है
___ हिरणीछंद अहितविहितप्रीतिः प्रीतं कलत्रमपि स्वयं सकृदपकृतं श्रुत्वा सद्यो जहाति जनोऽप्ययम् । स्वहितनिरतः साक्षादोषं समीक्ष्य भवे भवे विषयविषवद्ग्रासाभ्यासं कथं कुरुते बुधः ॥१९२॥
अर्थ-जैसै को मनुष्य अपनी प्यारी स्त्री जासू अधिक प्रीति रची है, अर वाकौ दुराचार सुनें तौ सुनकरि तत्काल आप ही वाहि तजै तैसैं आत्मकल्यणविर्षे सावधान जो विवेकी, विष सहित भोजन ता समान जो ए विषय, तिनिका भव-भवविर्षे दोष देखिकरि कैसैं इनिका सेवन करै ? सर्वथा न करै।
भावार्थ-काहूकै स्त्रीसू अधिक प्रीति होइ अर वह वाकू दुराचारनी सुनै तौ तत्काल तजै । तैसें पंडित विवेकी आत्मार्थी भव-भवविर्षे विषयनिके दोष देखिकरि कैसैं विषयानुरागी होय ? सर्वथा न होय । विषका भरया जो भोजन मिष्ट तौ लागै, परन्तु प्राण हरै, त्यौं ए विषय रमणीक भासै हैं, परन्तु अनंत भव प्राण हरै हैं। ___ आगैं कहै हैं कि जा समय तूं विषयनिका अभ्यास करै है ता समय कैसा है अर जब इनि” रहित हो है तब कैसा हो हैं
शार्दूलविक्रीडितछंद आत्मन्यात्मविलोपनात्मचरितैरासीटुरात्मा चिरं स्वात्मा स्याः सकलात्मनीनचरितैगत्मीकृतैरात्मनः । आत्मेत्यां परमात्मतां प्रतिपतन् प्रत्यात्मविद्यात्मकः स्वात्मोत्थात्मसुखो निषींदसि लसन्नध्यात्ममध्यात्मना ॥१९३॥
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