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आत्मानुशासन कषायविषयद्विषो विजयसे यथा दुर्जयान् शमं हि फलमामनन्ति मुनयस्तपःशास्त्रयोः ।।१९०॥ अर्थ हे भव्य ! तू लोककी पांति बिना इहां तैसें निरंतर शास्त्रकौं पढ़ि अर विस्तार लीए कायक्लेश तिनिकरि शरीरकौं भी सोखि जैसैं दुर्जय कषाय-विषयरूपी बैरीनिकौं तुं जीतें । जातै महामुनि हैं तें तप अर शास्त्रका फल उपशम भावहीकौं कहै हैं ।
भावार्थ-केवल शास्त्रका पढनां अर तपका करना ही कार्यकारी है नांही । कार्ययारी तौ उपशम भाव है। तहां जो जीव शास्त्र पढ़ि करि तत्त्व ज्ञानतें कषायनिकौं घटावै है वा तपश्चरणकरि इष्ट अनिष्ट सामग्री मिले राग द्वेष न होनेकी साधना करनेतें कषायनिकौं घटावै है तिसका तौ शास्त्र पढ़नां अर तप करनां सफल है । बहुरि जो जीव शास्त्र पढिकरि वा तपश्चरणकरि विषय कषायनिके कार्यनिकौं साधै मन रमावनेके अर्थि वा मान बड़ाईके अथि वा भोजन-धनादिकके अथि शास्त्र पढ़े है, तप करै है, सो जीव तौ लोककी पांतिविष बैठ्या है । जैसे अन्य लोक विषय-कषायनिकै अर्थी व्यापार सेवादिक कार्य करै हैं तैसैं इसनैं यह उपाय कीया है । इहां तर्कः-जो व्यापारादिकविर्षे तो हिंसाहिक हो है, इस उपायविर्षे कोई हिंसादिक है नांही, तातै व्यापारादिकतें तो यह उपाय भला है। ताका उत्तरः-व्यापारादिकविर्षे तौ बाह्य पाप विशेष दीखै है । अर इस उपाय विर्षे अंतरंग पाप बहुत हो है । ___ आर्गे कोऊ पूछे है कि शृगार सहित लोकनिकू अवलोककरि विषयनिकी अभिलाषा जीवनिकै उपजै है, सो कैसैं विषय-कषाय जीते जांहि ? तब वे गुरु उत्तर कहै हैं
वसंततिलकाछंद दृष्ट्वा जनं व्रजसि किं विषयाभिलाषं स्वल्पोऽप्यसौ तव महज्जनयत्यनर्थम् । स्नेहाद्युपक्रमजुषो हि यथातुरस्य दोषो निषिद्धचरणं न तथेतरस्य ।।१९१॥
अर्थ -हे भव्य ! तूं लोकनिकौं शृंगार सहित देखकरि कहा विषयाभिलाषषं प्राप्त होय है ? यह अल्प हू विषयाभिलाष तोकौं महा अनर्थ उपजावै है । जैसैं रोगीकू दधि-दुग्ध-घृतादिकका किंचित् हू सेवन अयोग्य आचरण है सो दोषकू उपजावै है तैसा औरकू नाही ।
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