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सत्तपका अन्तिम फल मोक्ष
१३५ मरणके पक्षपाती अनुरागी हैं । बहुरि जे मरणके अनुरागी तिनकै परस्पर हितसंबंध कैसैं मानिये । ऐसैं युक्तिकरि पुत्रादिकका जन्म-मरणविर्षे हर्षविषाद करना छुडाया है। __ आगै अब सर्व संगका त्यागी मरण-जन्मविर्षे जाकै समान बुद्धि पाईए, ऐसा मुनि सर्व शास्त्रका ज्ञाता, दुर्द्धर तपका करनहारा ताकौं शिक्षा देता सूत्र कहै हैं।
पृथ्वीछंद अधीत्य सकलं श्रुतं चिरमुपास्य घोरं तपो यदीच्छसि फलं तयोरिह हि लाभपूजादिकम् । छिनत्सि सुतषस्तरोः प्रसवमेव शून्याशयः कथं समुपलप्स्यसे सुरसमस्य पक्वं फलम् ॥१८९॥
अर्थ सर्व शास्त्रकू पढ़करि अर चिरकालपर्यंत घोर तपकू सेयकरि तूं तिनका फल इस लोक ही विर्षे लाभ बडाई आदि फलकौं चाहै है तो तुं सूना विवेक रहित है चित्त जाका ऐसा होता संता भला तपरूपी वृक्षका फूल हीको छेदै है । इस तपका जो भला रसकू लीये याका फल स्वर्ग मोक्षादिक ताकं तं कैसैं पावैगा? ___ भावार्थ-जैसे कोई वृक्ष उगावै तहां पहलै फूल होइ, पीछे फल लागे । बहुरि जो फूल ही कं छेदि आप अंगीकार करै तौ वाका मीठा पाका फलकी प्राप्ति न होइ । तैसै जो जीव शास्त्राभ्यास बहुत करै अर उत्कृष्ट तपश्चरण करै, तहां पहलै लाभ पूजादिक निपजै, भक्त पुरुष मनोरथ साथै वा स्वयमेव ऋद्धि चमत्कारादिक उपजै ऐसैं तो लाभ होइ । अर महंतता विशेष होइ ऐसा पूज्य होय इत्यादि कार्य निपजै पीछे स्वर्ग मोक्षका फलकी प्राप्ति होइ, बहुरि जो जीव लाभ पूजादिककौं आप चाहै, आप अंगीकार करै, लोभी होइ भक्त पुरुषनित किछ लीया चाहै वा उनकौं दीया धनादिककौं अंगीकार करै वा ऋद्धि चमत्कारादिककौं चाहै, तिनको भये संतुष्ट होय । बहुरि मानी होयकरि आप महंतपणौं बडापणौं चाहै वा महंतता बडाई भए मदवान होइ, सो जीव परम सुखरूप रसकौं लीये प्रगटै, ऐसा स्वर्ग मोक्षरूप फल ताकौं न पावै । तातें यह सीख है शास्त्राभ्यास वा तपश्चरणका साधनकरि लाभ पूजादिकका अर्थी न होना ।
पथ्वीछंद तथा श्रुतमधीष्व शश्वदिह लोकपंक्ति बिना शरीरमपि शोषय प्रथितकायसंक्लेशनैः ।
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