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लोकमें वस्तुमात्र सुखका कारण नहीं १३१ है । बहुरि कैसा है ? पोडा सहित है । गूमडा तौ पीडै है, अर मोह आकुलता निपजावै है। ऐसा मोहरूपी गुमडा है सो त्याग जात्यादिककरि शुद्ध होय है अर रौहकौं प्राप्त हो है। गूमडा तो रुधिरादिका छोडना अर जात्यादिक घृतादिक लगावना, इनि उपायनिकरि शुद्ध हो है। अर चामडीरूप रोहकौं प्राप्त होय । अर मोह है सो पर द्रव्यनिका छोडना अर निज जातिका ग्रहण करना इनि उपायनिकरि शुद्ध हो है अर सम्यक्त्वरूप रोहिकों प्राप्त हो है। - भावार्थ-जैसैं गूमडा अपना शरीर ही विर्षे उपजै है, परन्तु आपकौं दुखदायक है। तैसैं मोह है सो अपने ही अस्तित्व विर्षे प्रगट हो है, परन्तु आकुलता उपजावै है, तातै उपायकरि याका नाश करना ही योग्य है। .
आगैं मोहरूपी गूमडाको शुद्ध कीया चाहै तहां जीव नाशकौं प्राप्त भये भी कुटुंबनिविर्षे शोक न करना ऐसा कहै हैं
सुहृदः सुखयन्तः स्युर्दुःखयन्तो यदि द्विषः । सहृदोऽपि कथं शोच्या द्विषो दुःखयितुमृताः ॥१८४॥ अर्थ-जो आपकौं सुखी करै ते तौ मित्र होंहि अर दुःखी करै ते शत्रु होंहि । तौ जे मित्र भी थे अर वे दुःखी करनेकौं मूए तो वे भी शत्रु भए। ते कैसैं शोक करने योग्य होहिं ।
भावार्थ-लोकविर्षे जो आपकौं सुख उपजावै सो तौ मित्र कहिए अर दुःख उपजावै सो शत्रु कहिए । बहुरि जो पहलै मित्र भी था अर पीछे जो आपकौं दुःख दायक होय तौं वाकौं भी तहां शत्रु ही मानिये है। बहुरि जाकौं शत्रु मानिये ताका शोक भी नांही करिए है। तातै इहां अपने स्त्री पुत्रादिक है ते तो तेरी मानि विर्षे मित्र थे, परन्तु वैह मरणकौं प्राप्त भये तब तो तुझकौं सूखदायक भए । तातें वै भी शत्र ही भए। अब उनका शोक कहा करना! सो प्रत्यक्ष देखो जैसे शत्रुका स्मरणादिक दुःख उपजावै है तैसैं ही मूए पीछे स्त्री पुत्रादिका स्मरणादिक भी दुःख उपजावै है । तातै शास्त्रन्यायकरि तौ स्त्री पुत्रादिक बहु हितकारी नांही । बहुरि मूए पीछे भी उनकौं हितकारी मानि शोक करै है सो यह बड़ा मोह है । जो मोह दूरि किया चाहै सो स्त्री पुत्रादिकके मरणाकिक होतें भी शोक नांही करै है।
आगैं स्त्री पुत्रादिक मित्रनिके मरणविर्षे उपज्या है दुःख जाकों ऐसा जो तूं सो कहा करै है सो कहै है
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