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आत्मानुशासन
शिखरणी छंद ... .... अपरमरणे मत्वात्मीयानलध्यतमे रुदन् विलपतितरां स्वस्मिन् मृत्यौ तथास्य जडात्मनः । विभयमरणे भूयः साध्यं यशः परजन्म वा कथमिति सुधीः शोकं कुर्यान्मतेऽपि न केनचित् ।।१८५।। अर्थ-जो जीव अतिशयकरि अलंध्य काहू प्रकार मेट्या न जाइ ऐसा जो आपतै अन्य स्त्री पुत्रादिकनिका मरण ताकौं होत संतै तिनिकौं अपने जानि रोवता संता विलाप करै है, सो जीव आपविर्षे मरण अवस्था होते तैसैं ही अतिशयकरि रोवता विलाप करै है सो ऐसे मूरख आत्माकै भयरहित मरण होतें निपजै ऐसा प्रचुर यश अर उत्कृष्ट परलोक सो कैसे होय ? न होय । यात सुबुद्धि जीव है सो मूए भी कोई प्रकार शोक नाही करै है।
भावार्थ-जो जीव स्त्री पुत्रादिकका मरण होतें प्रत्यक्ष तापत तिनिका संबंध छटै तो भी मोहकरि तिनिकों अपना मानता संता रोवै है, विलाप करै है सो जीव आपका मरण होतै तौ अत्यन्त शोक करै ही करै । एक इष्टका वियोग होते ही शोक होइ तौ मरण समय तौ सर्वहीका वियोग हो है । तातें जाकै पुत्रादिकका वियोग विर्षे शोक हो है ताकै मरणका भय रहित जो समाधिमरण सो न होय । बहुरि समाधिमरण” इस लोकविर्षे तो यश हो है अर परलोकविर्षे उत्कृष्ट पद हो है सो वाकै कैसे होइ, तातें ज्ञानी मोहकौँ घटाइ पहले ही स्त्री पुत्रादिककौं अपना मानता संता काहूका मरण भये भी शोक न करै वाहीकै समाधिमरणकी सिद्धि हो है। ताकरि वाकै यहां यशकी अर आगें स्वर्ग मोक्षादिककी प्राप्ति हो हैं ।
आगें यह शोक काहतें हो है, अर यहु किस कारण है सो कहै हैंहानेः शोकस्ततो दुःख लाभाद्रागस्ततः सुखम् ।
तेन हानावशोकः सन् सुखी स्यात् सर्वदा सुधीः ॥१८६।। अर्थ-इष्ट सामग्रीकी हानिः शोक निपजै है अर तिस शोकतै दुःख हो है । बहुरि इष्ट सामग्रीकी प्राप्तितॆ राग निपजै है अर तिस राग” सुख हो है। तीह कारणकरि, सुबुिद्धि जीव है सो हानिविर्षे शोक रहित होत संता सदा काल सुखी हो है।
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