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राग-द्वेषा मूल कारण मोह
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रूप भावनितैं आत्माका भला हो है, तातैं धर्मकौं सूचता जो भाव सो तो गुण है। अर अधर्मरूप भावनितैं आत्माका बुरा हो है । तातैं धर्म विरोधी जो भाव सो दोष है । सो जिस जीवकै तीव्र मोहके उदयतें गुणविषै द्वेष होइ अर दोषविषै अनुराग होई । अथवा तिसही अभिप्रायतें जा विषै गुण होइ वा जो गुणका कारण होइ तिसविषै तौ द्वेष होइ, अर जा विषै दोष होइ वा दोषका कारण होइ तिस विषै अनुराग होइ, तिस जीवकै अशुभोपयोग पाईए है । ताकरि पाप कर्मका बंध हो है । बहुरि जिस जीवकै मंद मोहके उदयतैं गुणविषै अनुराग होइ, अर दोषविषै द्वेष होइ । अथवा तिस ही अभिप्रायतें जाविषै गुण पाईए है वा जो गुणका कारण होइ तिस विषै तो अनुरागी होइ अर जा विषै दोष होइ वा दोष का कारण होइ तिस विषै द्वेष होइ तिस जीवकै शुभोभयोग पाइए है । ताकरि पुण्य कर्मका बंध हो है । इहां कोऊ कहै — द्वेष बुद्धितें पुण्यका बंध कैसे होइ ? ताका समाधान - जो अपना कषायका प्रयोजन लिये द्वेष करै तहां तौ पापबंध ही है । बहुरि जैसैं कोऊ पुरुष मित्रका शत्रुविषै द्वेष करै, तैसैं जो धर्मके विरोधीविषै द्वेष करै तहाँ वाकै अभिप्रायकै विषै धर्मका अनुराग ही है, तातैं पुण्यबंध हो है । ताका उदाहरण – सूर सिंह दोऊ लरे, तहां सूर तौ मुनिरक्षा के अभिप्रायतें मरि पांचवें स्वर्गका देव भया । सिंह मुनि मारनेका अभिप्रायतें मरि पांचवें नर्क गया । बहुरि शास्त्रनिविषै पापनिकी वा पापी जीवनिकी निंदा करिये है । तातैं कथंचित् द्वेषतें भी पुण्यबंध संभव है । ऐसें दोऊ उपयोग राग द्वेष सहित प्रवत्तैं हैं । तातैं saat अशुद्धोपयोग कहिये हैं । बहुरि जिस जीवकै मोहका अभावतें ऐसे दोऊ प्रकारके राग द्वेष न पाईए तिस जीवकै शुद्धोपयोग हो है । तिसकरि पुण्य कर्म अर पाप कर्मका नाश ही हो है । नवीन बंध नांही हो है । पूर्व बंधकी निर्जरा होइ है । ऐसें तीन प्रकार उपयोग हैं सोई पुण्य पापका ध र तिनि दोऊनिका नाश ताका कारण जाननां ।
आगैं जो राग द्वेष पूर्वोक्त बंधका कारणपणां है तौ तिनका राग द्वेषनिका उपजना काहेतैं हो है ? ऐसें पूछे सूत्र कहै हैं
मोहबीजाद्रतिद्वेषौ तस्माज्ज्ञानाग्निना दाह्यं तदेतौ निर्दिधिक्षुणा || १८२ ।।
बीन्मूलाङ्कुराविव ।
अर्थ - जैसैं बीजतें वृक्षकै जड़ अर अंकूरा हो है तैसें मोहमूलकारण आत्माकै राग द्वेष हो है । तातै इनि रागद्वेषनिकों जो जीव दग्ध कीया चाहै है, तीह जीव ज्ञानरूपी अग्निकरि मोह दग्ध करना योग्य है ।
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