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आत्मानुशासन
भ्रमणका कारण नांही है । तातें कर्म फांसीकी ऐसे अविपाक निर्जरा करनी योग्य है, जाकरि बंध अर भ्रमण न होइ।
आगें जीवकै कैसें बंध हो है, अर कैसैं बंध नाही हो है ऐसा सूत्र कह हैं
आर्या छन्द रागद्वेषकृताभ्यां जन्तोर्बन्धः प्रवृत्यवृत्तिभ्याम् । तत्वज्ञानकृताभ्यां ताभ्यामेवेक्ष्यते मोक्षः ॥१८०॥ अर्थ-राग द्वेष भावनिकरि कीन्ही ऐसी जे प्रवृत्ति अर अप्रवृत्ति तिनि करि तौ जीवकै बंध हो है । अर तत्वज्ञानकरि कीनी जे प्रवृत्ति अप्रवृत्ति तिनि ही करि मोक्ष अवलोकिये है। ___ भावार्थ-जिसरूप होइ आत्मा प्रवत्र्तं ताकी तौ तहां प्रवृत्ति जाननी। अर जिसरूप होइ आत्मा. नांही प्रवत्त ताकी तहां अप्रवृत्ति जाननी । तहां मोहके उदयतें रागद्वेष भाव निपजै तिनकरि कदाचित् अशुभ कार्यनिकी प्रवृत्ति होइ अर शुभ कार्यनिकी अप्रवृत्ति होइ । सो ऐसी प्रवृत्ति अप्रवृत्तिकरि तौ आत्माकै बंव हो है। बहुरि मोहका उदय क्षीण होने” तत्त्वज्ञान होइ । ताकरि ज्ञानमात्र शुद्धोपयोगकी प्रवृत्ति होइ, शुभ अशुभ भावनिकौ अप्रवृत्ति होइ सो ऐसी प्रवृत्ति अप्रवृत्तिकरि आत्माकै मोक्ष हो है । तातें ऐसा ही साधन करना योग्य है। ___ आगै पूछे हैं जो बन्ध हो है सो पुण्यरूप अर पापरूप हो है । सो काहेत निपजे है ? बहुरि तिन दोऊनिका अभाव काहेतै हो है ? ऐसे आशंका करि उत्तर कहै हैं
आर्याछंद द्वेषानुरागबुद्धिगुणदोषकृता करोति खलु पापम् ।
तद्विपरीता पुण्यं तदुभयरहिता तयोर्मोक्षम् ॥१८१॥ ___ अर्थ-गुण और दोष तिनविर्षे कीन्हीं जो द्वेषरूप अर अनुरागरूप बुद्धि सो तौ निश्चयकरि पापकौं करै है, अर तिसतै विपरीत गुणविर्षे अनुराग, दोषविषै द्वेषरूप बुद्धि सो पुन्यकौं करे है । बहुरि तिन दोऊनित रहित जो बुद्धि है सो तिन पाप-पुण्यरूप कर्मनिका मोक्षकौं करै है।
भावार्थ-बुद्धि नाम उपयोगका है। सो उपयोग तीन प्रकार है। अशुभोपयोग, शुभोपयोग तथा शुद्धोपयोग । तहां जाकरि आत्माका भला होइ ताका नाम गुण है । जाकरि बुरा होइ ताका नाम दोष है । सो धर्म
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