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मोहाग्निकी अतिशयता
१२५ अर्थ-निश्चयकरि ज्ञानविर्षे ज्ञान ही फल है सो सर्वथा सराहनैं योग्य है, अर अविनाशी है । बहुरि जो इहां अन्य किछू फल अवलोकिये है सो बड़ा आश्चर्य है । यहु मोहकी महिमा जाननां ।
भावार्थ-श्रुतज्ञानकरि पदार्थनिकों यथार्थ जानिए ताका तत्काल तो सोई पदार्थनिका जानपनां होना ही फल है। अर परंपराकरि ताका फल केवलज्ञान ही है। तहां सर्व पदार्थनिका जानपनां हो है । ऐसें ज्ञानका फल ज्ञान ही है सो सर्व प्रकार प्रशंसा योग्य है। जातें यथार्थ ज्ञान भए पदार्थ जैसेके तैसे भासै तहां निराकुलता हो है। निराकुलता सुखका लक्षण है । सुखकौं सर्व चाहै हैं । बहुरि इस सुखविर्षे पराधीनता आदि कोई दोष नाही है । बहुरि जो विषय सामग्रीरूप फलकौं चाहिये है सो यहु मोहकी महिमा है । जैसैं खाज रोग भए खुजावनेकी सामग्री भली लागै है । तैसैं मोहत काम क्रोधादि भाव आत्माकै हौइ, तब याकौं स्त्री पुत्रादिक सामग्री भली भासै है । उनकौं चाहै है। बहुरि ज्ञानी जनकौं ज्ञान बिना आन फलका चाहना आश्चर्य भास है। जैसैं भूत लगे पुरुषकी चेष्टाका आश्चर्य होइ तैसें मोही जीवनिकी चेष्टाका ज्ञानीकौं आश्चर्य है ।
आगै श्रुतज्ञानकी भावनावि प्रवत्तें' ऐसे भव्य अर अभव्य तिनके कहा फल होय सो कहै हैं
शास्त्राग्नौ मणिवद्धव्यो विशुद्धो भाति निव॑तः । अङ्गारवत् खलो दीप्तो मली व भस्म वा भवेत् ॥१७६।। अर्थ-शास्त्ररूवी अग्निवि भव्य है सो तो साचा पुष्परागरत्नवत् मल रहित निष्पन्न होत संता विशुद्ध निर्मल सोहै है । बहुरि दुष्ट अभव्य सी अंगारावत् प्रकाशमान होत संता मल संयुक्त हो है वा भस्मरूप हो है।
भावार्थ-जैसे पद्मराग मणि है सो तो अग्निकरि लगे हुए मलनिका नाश होने” निष्पन्न तार्को पाइ शुद्ध भावरूप होत संता सोभायमान हो है, बहुरि इंधन का अंगारा है सो अग्निकरि प्रकाशमान तो होइ, परन्तु के तौ कोयलारूप मैला होइ, कै राखरूप भस्म होइ। तैसैं धर्मात्मा भव्य जीव है सो तौ शास्त्रका अभ्यास-करि लगे हुए अज्ञान रागादिक मलनिका नाश होनेत सिद्ध पदकौं पाइ शुद्ध स्वभाव रूप होत संता प्रशंसायोग्य है । बहुरि
१. ऐसे भव्य तिनके. ज. १७५.
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