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________________ १२४ आत्मानुशासन आगैं ऐसा सर्व वस्तुनिका साधारण समान स्वरूप है तौ आत्माका असाधरण स्वरूप कैसा है जो भाया हुवा तिस आत्माकै मुक्तिक साधै ऐसैं पूछे कहै हैं ज्ञानस्वभावः स्यादात्मा स्वभावावाप्तिरच्युतिः। तस्मादच्युतिमाकांक्षन भावयेज्ज्ञानभावनाम् ।।१७४॥ अर्थ-आत्मा है सो ज्ञान है असाधारण स्वभाव जाका ऐसा है । बहुरि स्वभावकी प्राप्ति सो विनाश रहित है । तातै अविनाशी अवस्थाकौं चाहता विवेकी है सो ज्ञान भावनाकौँ भावै । भावार्थ-पूर्व जो नित्य अनित्यादि धर्म कहे ते तौ सर्व वस्तुनिविर्षे समानरूप साधारण हैं। बहरि जो यह ज्ञान है-जानना है सो आत्मा ही विर्षे पाईए है । सो यहु आत्माका असाधारण स्वभाव है। इस ही लक्षणकरि परद्रव्यनितें भिन्न आत्माकै अस्तित्वका निश्चय हो है। बहुरि यहु नियम है-वस्तुका अस्तित्व होतें ताके स्वभावका अभाव न होइ, जातें लक्षण नाश भए लक्ष्यका अस्तित्व केसैं रहै ? बहुरि जैसैं जो पुरुष अपने धन ही धनी का होइ प्रवत्तै ताकी एकसी दशा होइ रहै। बहुरि जो परधनका धनी होय प्रवर्तं ताकी एक दशा रहै नांही । तैसैं आत्माका स्वभाव ज्ञान समयसार है सो जीव अपने ज्ञान ही का स्वामी होइ प्रवर्ते। ऐ पदार्थ जैसै परिणमैं तैसैं परिणमो । मैं इनका जाननिहारा ही हौं ऐसी भावना राखै ताकौं अविनाशी अवस्था हो है । जातें जानपणा तौ याका स्वभाव ताका तौ अभाव होय नाहीं । बहुरि जानपना बिना सारभूत आन भावनिका यह स्वामी होता नाही, याकी अवस्था कैसें पलटे। बहरि जो जीव परद्रव्यके स्वभावनिका स्वामी होय प्रवत्त, शरीर धन स्त्री पुत्रादि अपने स्वभावरूप परिणामैं, तिनकौं अपनां जानें, ताकै अविनाशी अवस्था रहै नाही । जातै शरीरादिक अवस्था एकरूप रहै नांही। यहु तिनकी अवस्था पलटें आपकी अवस्था पलटी मानें तहां अविनाशीपना कैसैं रहै । तैतें जो विवेकी अविनाशी अवस्थाकौं चाहै सो एक ज्ञान भावनां ही कौं भावै । __आगें प्रश्नः-जो पृथक्त्ववितर्क एकत्ववितर्क भेद लिए शुक्लध्यानस्वरूप जो श्रुत्रज्ञान भावनारूप है स्वभाव जाका ऐसा ज्ञानकौं भाए फल कहा हो है ताका उत्तर कहै है ज्ञानमेव फलं ज्ञाने ननु श्लाघ्यमनश्वरम् । अहो मोहस्य माहात्म्यमन्यदप्यत्र मृग्यते ।।१७५॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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