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प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक है
१२३ समय समय प्रति तिसरूप भी है, अर तिसरूप नाहीं भी है। ऐसा ही अनादिनिधन है । सो जैसे एक पदार्थ ऐसे ही भासै हैं तैसैं ही सर्व पदार्थ जानना।
भावार्थ-वस्तुका स्वरूप सर्वथा एकरूप नाहीं है। नाना अपेक्षात नानारूप है। सांख्य नैयायिक आदि मतवाले वस्तुकों सर्वथा नित्य ही मानें हैं । बौद्धमती क्षण विनश्वर ही मान हैं। कोई बौद्धमती' ज्ञानाद्वैतवादी एक ज्ञानी ही है, वाह्य कोई वस्तु नांही ऐसा मानै हैं । कोई बौद्धमती शून्यवादी सर्व वस्तुका अभाव माने हैं। इत्यादि एकांतरूप वस्तुकौं मानै हैं, सो ऐसे है नाही. जातें विचार की ए ऐसे एकांतविर्षे विरोध भासै है। एक ही वस्तुविर्षे अवस्था पलटे बिना अर्थक्रियाकी सिद्धि होती नांहो, तातै सर्वथा नित्य कैसैं मानीये । बहुरि अन्य अन्य अवस्था होतें भी कोई भावका नित्यपनाकरि सर्वदा वस्तु एक भासै है। तातें सर्वथा क्षण विनश्वर कैसे मानिये। बहुरि ज्ञान भी भासै है, बाह्य पदार्थ भी भारी है। जो बाह्य पदार्थ न मानीये तो प्रमाण अप्रमाण ज्ञानका विभाग न होइ, तातै सर्वथा ज्ञानमात्र ही नांही है। वहुरि प्रत्यक्ष पदार्थ भासै हैं तिनका अभाव माने वाँका उपदेश भी शब्दरूप पदार्थ है सो भी अभावरूप ही ठहरया। प्रत्यक्षकौं झूठ कहै सो बन नाही, तातै सर्वथा अभावरूप नाही है । ऐनै एकान्तरूप तौ वस्तु नांही। तौ कैसा है ? तिसरूप भी है, अर तिसरूप नांही भी है । सो ही कहिए है—वस्तु है सो द्रव्य अपेक्षा नित्य है, पर्याय पलटनेकी अपेक्षा क्षण विनश्वर है। ज्ञानविर्षे भासनेकी अपेक्षा ज्ञानमात्र है । बाह्य वस्तु सत्तारूप है, तिनकी अपेक्षा ज्ञानमात्र नांही। बाह्य वस्तु भी है । परद्रव्य क्षेत्र काल भावविर्षे यहु नास्ति है, ताकी अपेक्षा अभाव है। स्वद्रव्य क्षेत्र काल भावविर्षे अस्ति है, ताकी अपेक्षा अभाव नाही, सद्भाव है, ऐसे ही अनेकान्तरूप अनादिनिधन वस्तुका रूप है। सो एक पदार्थविर्षे विचारि देखो । जैसैं एक जीव चेतनत्वादि भावनिकी अपेक्षा नित्य भी है, अर नरनारकादि पर्यायनिकी अपेक्षा अनित्य भी है। ज्ञानविर्षे प्रतिभास्या जीवका आकार सो ज्ञानमात्र भी है। जीव अपना अस्तित्व लिए पदार्थ भी है। पुद्गलादिकका द्रव्य क्षेत्र काल भावविर्षे जीवका अभाव भी है। जीवका द्रव्य क्षेत्र काल भावविर्षे जीवका सद्भाव भी है। ऐसे ही अनेकान्तरूप जैसैं जीव एक पदार्थ है तैसै ही सर्व पदार्थ अनादिनिधन अनेक अपेक्षाकरि तिसरूप भी है, अर तिसरूप नांही भी हैं । बहुरि जैसा है तैसा ही मानें सम्यग्ज्ञान हो है। ता” तैसैं ही मानना योग्य है१. बोधमती, ज० १७३, ५ .
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