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आत्मानुशासन
करि बाधित नांही है । ऐसें ही वस्तुस्वरूप भासे है, तातें सोई पुरुष एककालविषै उत्पादव्ययध्रौव्यपनाको धारै है । जिस समय रंकतैं राजा भया उस ही एक कालविषै राजापनांका तो उत्पाद है, रंकपनांका व्यय है, मनुष्यपनां ध्रौव्य है ऐसें ही कोइ जीव मनुष्यतें देव भया तहां मनुष्यपना देवपनाकी अपेक्षा यहु अन्य है ऐसी प्रतीति करिये है । जीवपनांकी अपेक्षा
सोई है ऐसी प्रतीति करिये है । तातें मनुष्यतें देव होने का समयवियँ देवपनांका उत्पाद, मनुष्यपनांका व्यय, जीवपनांका ध्रौव्य ऐसैं एक ही वस्तु एक कालविषँ तीनों भाव धरे पाईए है । याही प्रकार सर्व जीवादिक वस्तु एक समयविषै स्थूल पर्यायनिकरि वा सूक्ष्म पर्यायनिकरि उत्पादव्ययधौव्यपनकौं धार है । तातैं एक वस्तुविषै नित्य अनित्यपना सिद्ध भया । ऐसें ही स्वद्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षा सत्तापनां परद्रव्य क्षेत्र काल भाव अपेक्षा नास्तिपनां मांननौं । एक ही पुरुषकौं यहु द्रव्य सो पुरुष है, यहु द्रव्य सो पुरुष नांही । सोई पुरुष इस क्षेत्र विषै है, इस क्षेत्रविषै नांही । इस कालविषे है, इस कालविषै नांही । ऐसा स्वरूपमय है, ऐसा स्वरूपमय नांही । ऐसें मानिये है । तातें एक ही वस्तु युगपत् सत्ता असत्तारूप है । बहुरि अंशीकी अपेक्षा एक, अंशनिकी अपेक्षा अनेक मांननां । एक ही पुरुषकौं सर्व शरीर अपेक्षा एक भी कहिए, अर हस्त पादादि अपेक्षा अनेकरूप भी मन है । तैं एक ही वस्तु युगपत् एक अनेकरूप है । ऐसें ही तिसरूप है रतिरूप नाहीं भी है, ऐसा तत्त्व भासै है । सो यथा योग्य शास्त्र द्वारकरि प्रमाण अविरुद्ध अपेक्षातें सम्यग्ज्ञानी जीव तैसें ही विचार है ।
आ कोई तर्क करे जो वस्पुकै धौव्यादि तीन स्वरूपपनौं असिद्ध है । जातें तिस वस्तुकै सर्वथा नित्यादि एक एक स्वरूपपनौं हीं पाईए है । ऐसी आशंकाकौं दूरि करता सूत्र कहै हैं
वसन्ततिलकाछंद
न स्थास्नु न क्षणविनाशि न बोधमात्रं नाभावमप्रतिहत प्रतिभासरोधात् ।
तपत्रं प्रतिक्षणभवत्तदतत्स्वरूषं आद्यन्तहीनमखिलं च तथा यथैकम् || १७३ ||
अर्थ - वस्तु है सो सर्वथा स्थिर नित्य ही नांही, क्षण विनस्वर ही नाहीं, ज्ञानमात्र ही नांहीं, अभावस्वरूप ही नांही । जातैं अखंडित प्रतिभासनेका निरोध है । अविरुद्ध पनेकरि ऐसे भासता नांही । जातैं वस्तु
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