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रमनेका स्थान अनेकान्त स्वरूप वस्तु ११९ पासि मांही रहते छाने बैरी, ते अंतरंग के शत्रु हैं । तहां जो राजा बहिरंग शत्रुनिका नाश करै ताकै राजभ्रष्ट होनेका कारण नाही। परंतु जो खानपानादि क्रियानिविर्षे सावधान न प्रवत्तै तौ अंतरंग शत्रुनिकरि मरणकौं पावै । तातै अंतरंग शत्रुनि” भी जैसी अपनी रक्षा होइ तैसें खानपानादि क्रियानिवि सावधान रहना योग्य है। तैसैं मुनिनिके शत्रु दोय प्रकार हैं। एक तौ बहिरंग, एक अंतरंग । तहाँ जे हिंसादिरूप आरंभादिक अपने मुनि लिंगतें बाह्य प्रगट विपरीत भार्से ते तौ बहिरंग शत्रु हैं । बहुरि जे खानपानादि क्रियानिविर्षे रागादिक प्रमादरूप मुनिलिंगविषं भी मोही होते छाने विपरीत भाव ते अंतरंग शत्रु हैं। यहां जो मुनि बहिरंग आरंभादिकका त्याग करै ताकै मुनिपदतै भ्रष्ट होनेका कारण रह्या नाही । परंतु जो खानपानादि क्रियानि विर्षे' प्रमादी होइ सावधान न प्रवर्तं तौ अंतरंग रागादि भावनिकरि मुनिपदका नाशकौं पावै । तातै अंतरंग रागादि शत्रुनितैं जैसें अपना मुनिपदकी रक्षा होय तैसें खान पानादि क्रियानिविर्षे सावधान रहना योग्य है। भाव इहां यह है-बाह्य आरंभादिक ही का त्याग करि निश्चित न होना । मुनिलिंगविर्षे खानपानादि क्रिया रही है, तहां भी रागादिक न करना । __ आगें मनकौं रोके आत्माकी रक्षा होइ अर रागादिका नाश होइ तिस मनको रोकना ऐसें करना योग्य है ऐसैं कहै हैं
शिखरणीछंद अनेकान्तात्मार्थप्रसवफलभारातिविनते वचःपर्णाकीणे विपुलनयशाखाशतयुते । समुत्तुंगे सम्यक्प्रततमतिमूले प्रतिदिनं
श्रु तस्कन्धे धीमान् रमयतु मनो मर्कटममुम् ।। १७०।। अर्थ-बुद्धिमान है सो इस मनरूपी बंदरकू दिन प्रति सदाकाल शास्त्ररूपी वृक्षविर्षे रमावो । कैसा है शास्त्ररूपी वृक्ष अनेकान्तस्वरूप जो अर्थ, तेई भये जे फूल फल, तिनके भारकरि नम्रीभूत है । बहुरि वचनरूपी पाननिकरि व्याप्त है। बहरि विस्तीर्ण नयरूपी शाखा डाहली तिनके सैकडानि संयुक्त है। बहुरि भलै प्रकार ऊँचा है । बहुरि भला विस्तार लीये जो मतिज्ञान सो जाका मूल जड है। १. क्रियानिविर्षे अप्रमाद होई ज० १६९, १, २. कैसा है वा अनेकान्त. ज. १७०.८
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