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आत्मानुशासन . भावार्थ-कोऊ कहै मन तो बंदरसमान चंचल है सो सावधानी राखें भी रागादिरूप परिणमैं तौ कहा करिए? ताकौं शिक्षा दीजिए है । जैसै बन्दर ठाला रहै तब तौ कछू विगार करै ही करै। तातै वाकौं वृक्षवि रमा दीजिये तो अपना विगार न करै, अर वह भी प्रसन्न रहै। तैसैं मन निरालंव रहै तब तो रागादिरूप प्रवत्र्ते ही प्रवः; तातें वाको शास्त्राभ्याम विर्षे लगा दीजिये तो रागादिरूप न प्रवत्र्ते, अर वह मन भी प्रसन्न रहै । इहां बाह्य शास्त्रनिका पठन पाठन करना ताहीका नाम शास्त्राभ्यास न जाननां; किन्तु शास्त्रकै अनुसारि स्वरूपध्यानादिकका करनां सो भी शास्त्रम्यास ही है । जाते शुक्लध्यानविर्षे भी वितर्कसहित ध्यान कह्या, बहुरि वितर्क नाम श्रुतका कह्या है । तातें यावत् केवलज्ञान न होइ तावत् शास्त्रवि ही मन लगाये रागादिक हीन हो है। सो यहु शास्त्र मन बन्दरके रमावनेको वृक्षसमान कह्या । तहां वृक्षविर्षे तो सारभूत फूल फल हो है। ताका भारकरि नम्र है, अर शास्शविर्षे सारभूत स्याद्वादरूप अर्थ पाईए है ताका बाहुलपनां करि ग्राह्य है । बहुरि वृक्षविषै पान हो है ताकरि सघन शोभै है । शास्त्रविर्षे युक्ति लीय वचन पाइए है ताकरि संकीर्ण शोभै है । बहुरि वृक्षविर्षे डाहली हो है तिनकै आश्रय पत्र फल फूल पाईए है। शास्त्रविर्षे अनेक नय हैं तिनकै आश्रय वचन रचनां वा अर्थनिरूपण करिये है । बहुरि वृक्ष ऊंचा शोभै है । शास्त्र त्रिलोक्य पूज्य ऊंचा शोभै है । बहुरि वृक्षकै विस्ताररूप जड हो है । सोई कारणभूत है । शास्त्रकै विर्षे विस्तारलिएं बुद्धि अथवा मतिज्ञान पूर्व कारणभूत हो है । ऐसें वृक्षसमान शास्त्रवि मन बन्दरकौं रमावो।
आगें शास्त्ररूपी वृक्षकै मनकौं रमावता हुआ जीव है सो ऐसैं तत्त्वको भावै ऐसा कहैं हैं
तदेव तदतद्पं प्राप्नुवन्न विरंस्यति ।
इति विश्वमनाद्यन्तं चिन्तयेद्विश्ववित् सदा ॥१७१॥ अर्थ-समस्त तत्त्वनिका जाननिहारो ज्ञानी है सो अनादिनिधनि समस्त जीवादि तत्त्वनिकौं ऐसा चितवै है जो सोई एक वस्तु तिस विवक्षित स्वरूप
१. शास्त्राभ्यास जाननां-मु. १७०.२० २. सारभूत फल हो है. मु. १७०.५ ३. नम्र हैं-शास्त्रविषै. ज. २७०.२ ४. शास्त्रकै विस्तार किए. ज. १७०.७ ५. शास्त्र विषं. मु. १७०१५.
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