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________________ ११८ आत्मानुशासन एक तौ भाग्यहीन पुरुष अमृत पीय करिताकौं वमैं है अर एक जो संयम नियम निधानको' पाय करि ताकौं छांडै है। भावार्थ-जहां असंभव कार्य भासै तहां आश्चर्य मानिए है । सो लोकनिकौ तो अनेक कौतुकरूप कार्य आश्चर्यकौं उपजावै हैं। परंतु हमकौं तौ इन दोय कार्यनिहीका आश्चर्य है। कोई महाभाग्यजाकरि जरादिक रोग न होइ ऐसा अमृत पान किया । बहुरि वाकों वमै सो एक तो यह आश्चर्य है। अर कोई काललब्धितें, जाकरि जन्म मरणादि दुःखका नाश होई ऐसा संयम निधानका 'ग्रहणं कीया, बहुरि वाकौं छांडे, सो एक यहु आश्चर्य है। इहां दोय आश्चर्य कहे । तहां पहलै तौ दृष्टांतरूप जानना । जैसैं अमृतपानकरि ताका वमन करनां तैसें संयम ग्रहणकरि ताका त्यजन करना विपरीत कार्य है। तातें ऐसा कार्य विवेकी करै नाही। __ आर्गे तिस पूर्वोक्त कारण” संयम निधानकौं नाही छांडते ऐसे विवेकी जीव हैं ते सर्व परिग्रह त्यागकरि रागादिकका निर्मूल नाश करनेकै अर्थि यत्न करहु ऐसी सीख देता सूत्रकहै हैं मालिनीछंद इह विनिहतबह्वारम्भबाह्योरुशत्रोः उपचितनिजशक्ते परः कोऽप्यपायः । अशनशयनयानस्थानदत्तावधानः कुरु तव परिरक्षामान्तरान् हन्तुकामः ॥१६९।। अर्थ-इस मुनिलिंगविषै नाशकौं प्राप्त कीए हैं बहुत आरंभादि पाप कर्मरूप बाह्य वैरी जानै, अर एकट्ठी कीन्ही है अपनी शक्ति जिहिं ऐसा जो तूं सो तेरे और तौ कोऊ विघ्न करनहारा कष्ट रह्या नाही, परन्तु अंतरंग वैरीनिका नाश करनेका अभिलाषी होय भोजन करना, सोवना, चालना, तिष्ठना इत्यादि क्रियानिविर्षे सावधान होत संता तूं तेरी रक्षाकौं करि, यह हम सीख दई है । भावार्थ-राजानिकै शत्रु दोय प्रकार होइ हैं । एक तौ बहिरंग, एक अंतरंग । तहां जे अन्य राजादिक अपने स्थानः बाह्य प्रगट बैरी ते तो बहिरंग शत्रु हैं । वहुरि जे खानपानादिकके 'साधक किंकरादिक अपने १. संयम निध नकों, मु० १६८, ७३, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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