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मुनिपदमें दोष लगाना उचित नहीं ११७ सो ऐसा असंभव कार्य देखि कैसैं आश्चर्य न होइ है । इहां आश्चर्य कहनेका यह भाव है-भ्रष्ट होता मुनि लोक रीतिकौं उल्लंघि निन्दाका स्थान भया
___ आगें जा तपकरि महा पापका धोवना होइ तिस तपकौं भी नीच पुरुष मलिनताकौं प्राप्त करै है ऐसा कहैं हैं
विशुध्यति दुराचारः सर्वोऽपि तपसा ध्रुवम् । करोति मलिनं तच्च किल सर्वाधरःऽपरः ।।१६७।
अर्थ-तपकरि सर्व ही किया हुआ दुराचार है सो निश्चय शुद्ध हो है, दूरि हो है । बहुरि जैन मततै बाह्य भया ऐसा सर्वतें निकृष्ट निंद्य जीव है सो तिस तपकौं मैला करै है।
भावार्थ-जैसें जलकरि मल धोइये है। बहुरि जा धोवनेका कारण जल ही मैं मल मिलावै तो वाकौं नीच कहिये । तैसें तपकरि पाप दूरि हो है। बहुत पापी भी होइ अर तप करै तौ पापकौं दूरि करै । बहुरि जो पाप दरि करनेका कारण तप तिस ही विर्षे पाप लगावै तौ वह सर्वोत्कृष्ट नीच है । इहां यहु भाव है जो पाप ही करता होय सो तो नीच ही है । अर पाप मेटनेका कारण मुनिलिंग धारै अर तिस विर्षे दोष लगावै सो उत्कृष्टनीच है । सो अन्यत्र भी ऐसा न्याय है-'अन्य स्थानविर्षे कीया पाप तौ धर्म स्थानविर्षे दूरि होय । धर्म स्थानविर्षे कीया पाप कहां दूरि होय, वज्रलेप हो है" तातें गृहस्थ पदका उपजाया पाप मुनिपदविर्षे दूरि होइ अर मुनि पदविर्षे कीया पाप कहाँ दूरि होइ, वज्रलेप हो है। ऐसे निश्चै करि मुनिलिंग विर्षे दोष लगाना योग्य नाही।
आगै आश्चर्यके बहुत कारण हैं तिनविर्षे तपकौं छोड़नेवालाकै अति आश्चर्यपणांके कारणकौं दिखावता सूत्र कहै हैं
वसन्ततिलकाछंद सन्त्येव कौतुकशतानि जगत्सु किं तु विस्मापकं तदलमेतदिह द्वयं नः । पीत्वाऽमृतं यदि वमन्ति विसृष्टपुण्याः संप्राप्य संयमनिधिं यदि च त्यजन्ति ॥१६८॥
अर्थ-तीन जगतनिविर्षे कौतूहलनिके सैंकडे पाइए ही है। परंतु इनि विर्षे हमकौं तौ ए दोय ही कार्य अत्यर्थपर्ने आश्चर्य उपजावनेहारे हैं।
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