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________________ कलिकालकी महिमा १११ परिग्रह जिनका तीव्र राग विनां ग्रहण न होइ तिनिका ग्रहण कैसे करे ? सर्वथा न करै । जिनागमविषै लंगोट मात्र परिग्रह राखें भी अणुव्रती कह्या । अधिक परिग्रह होतैं मुनिपनौं कैसैं मानीये । तातैं मुनिकै वस्त्रादिक परिग्रह माननां मिथ्या है शार्दूलछंद दातारो गृहचारिणः किल धनं देयं तदत्राशनं, गृह्णन्तः स्वशरीरतोऽपि विरताः सर्वोपकारेच्छया । लज्जैषैव मनस्विनां ननु पुनः कृत्वा कथं तत्फलं रागद्वेषवशीभवन्ति तदिदं चक्रेश्वरत्वं कलेः ॥ १५९ ॥ अर्थ - इस मुनि धर्मविषै गृहस्थ तो दातार अर देने योग्य भोजन मात्र धन अर आप सर्वका उपकारकी इच्छाकरि तिस भोजनकौं ग्रहण करते अपने शरीरतै भी विरक्त ऐसैं जु यहु क्रिया हो है सोई यहु बुद्धिवाकै लाज है । बहुरि यहु बड़ा आश्चर्य है जो तिस भोजनकौं मुनि भेषका' फल समझिर्कारि राग द्वेषकै वशीभूत हो है । सो हु कलिकालकौं चक्रवत्तनौ है | भावार्थ–गृहस्थ तौ अपनी भक्तितें दातार होइ अर मुनि पात्र होइ तहां एक भोजन मात्र ही धन हीका दान है । अन्य धनादिकका दान नही है | बहुरि सिकौं भी मुनि गृहै है सो अपना वा दातारका वा अन्य जीवनिका जैसें सर्व प्रकार भला होइ तैसैं ग्रहै है । ऐसें नांही जो आहार लेइ प्रमादी होइ अपना बुरा करै, दातारकौं कषाय उपजाय वाका बुरा करै वा अन्य जीवनिकौं दोषका कारन होइ । औरनिका बुरा करै बहुरि आहार लेतें भी अपने शरीरतें भी विरक्त रहै है । जाने है, यहु शरीर मोकूं इष्ट नांही, परंतु याकरि तप साधन करना है, तातैं जैसें यहु नष्ट न होय तैसें थोरा नीरस आहार करना । स्वादादिकका लोभतें आहार नहीं है । ऐसें मुनि आहार ग्रहण करे है सो ही मुनिकै लाज उपजावे है । आहार लेनेतैं संकोच उपजै है । आपकी होनता माने है । बहुरि यहु बड़ा आश्चर्य भया है इस कलिकालविषै आहारकै अथ मुनिपनौं अंगीकार करै है । इस भेषकरि आजीविकाकी सिद्धि करै है सो हमकों ऐसें १. भेषका फल करि, ज० १५६-४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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