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आत्मानुशासन भास है। यह कलिकालविर्षे चक्रवर्तिपनेकी महिमा है। जैसैं चक्रवर्ति अपने क्षेत्रके वासी देवादिक तिनिविष भी आज्ञा मनावै तैसैं यह कलिकाल अपनी मर्यादाविर्षे उपजे मुनि आदि तिनि विषै भी विपरीतपनां प्रवर्तावै है। इहां कोऊ कहैः-जु यहु काल दोष है तो इस कालविर्षे ऐसे ही मुनि मानौ । ताका उत्तर:-जैसैं कलिकालविर्षे अन्याय प्रवत्र्ते है तौ ताकौं भ्याय तो न माननां । यह जाननां जो अन्यायकी प्रवृत्ति कालदोषः है। तैसैं कलिकालविर्षे भ्रष्ट भेषधारी प्रवत्र्ते हैं तो तिनिकौं मुनि तो न माननें, यह जाननां जो ऐसे भेषनिकी प्रवृत्ति काल दोषतें है । बहुरि जैसे कहिये यह कार्य दुष्टके उदयतें भया है। तहां दुष्टवत् उस कार्यकी निंदा जाननी । तैसैं जहां कहिये यह कार्य कलि कालरौं भया तहां कलिकालवत् तिस कार्यकी बहुत निंदा कीनी है ऐसा जानना। तातें जे मुनि भेषधारी जो भोजनादिकके अर्थी होइ रागी द्वेषी हो हैं तिनिकी निंदा करनेकै अर्थि यहां कलिकालका महिमा कह्या है____ आर्गे रागद्वेषका आधीनपनां कर्मकरि करिये है, तीह कर्म हे, जीव ! तेरा कहा कीया है सो कहै है
__शार्दूलविक्रीडित छंद आमृप्टं सहजं तव त्रिजगतीबोधाधिपत्यं तथा सौख्यं चात्मसमुद्भवं विनिहतं निमूलतः कर्मणा । दैन्यात्तद्विहितैस्त्वमिन्द्रियसुखैः संतृप्यसे निस्त्रपः स त्वं यश्चिरयातनाकदशनैर्वद्धस्थितस्तुष्यसि ॥१६०॥ अर्थ हे जीव ! जिस कर्मकरि तेरा स्वभावभूत तीन जगत्का जु ज्ञान ताका स्वामित्वपनां सो नष्ट कीया । बहुरि तैसें ही आत्मजनित सुख सो मूलतें नाशको प्राप्त भया सो कर्म तो ऐसे कीया। बहुरि तूं निर्लज्ज हुवा दीनपनांत तिस कर्मकरि निपजाएँ इन्द्रिय सुख तिनिकरि तृप्त हो है सो तूं कौन जो यातना कहिये उपवासादिकका कष्ट ताहि सहिकरि पीछै मिलै जो कुत्सित नीरस आहार ताविर्षे बांधी है स्थिति आजीविका जानै ऐसो होत संता संतुष्ट हो है।
भावार्थ-जैसैं कोई बड़ा राजा ताकौं कोई बैरी राज-भ्रष्ट करै । बहुरि वह राजा दीन होई उस ही का दिया किंचित् भोजनादिक ताकरि प्रसन्न होइ । तहां तिसकौं निर्लज्ज कहिये धिक्कार दीजिये । तैसें हे जीव! तू अनंत ज्ञान सुखका स्वामी महंत पदार्थ है । बहुरि ऐसे ज्ञान सुखका
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