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आत्मानुशासन चाह छोरी, ऐसैं सर्व चाह छोरि तिस आशाकौं मिटायि समान भाव जो वीतराग भाव तिसरूप प्रवत है। ___ आगै निग्रंथपनांकौ अवलंबिकरि प्रतिज्ञा करी है महाव्रतनिकी जानें ऐसा मुनि है ताकै परिग्रहका अंगीकार करनेका अभाव” ऐसैं पूर्वोक्त प्रकार ही इस आशाका समानरूप करना योग्य है ऐसैं दिखावता संता विहित इत्यादि दोय काव्य कहै हैं
___हिरणीछंद विहितविधिना देहस्थित्यै तपास्युपबृहयन्नशनमपरैर्भक्त्या दत्तं क्वचित् कियदिच्छति । तदपि नितरां लज्जाहेतुः किलास्य म्हात्मनः कथमयमहो गृह्णात्यन्यान् परिग्रहदुर्ग्रहान् ॥१५८॥
अर्थ-मुनि है सो तपको वधावता शरीरकी स्थितिकै अर्थि जो भोजन योग्य विधिकरि अन्य गृहस्थां भक्तिकरि दियो ताकौं कोई कालविर्षे किंचित्मात्र वांछ है। सो भी इस महात्मा मुनिकै अतिशयकरि लज्जाका कारण है तो अहो लोक ! यह महात्मा अन्य परिग्रहरूपी जे खोटे ग्रह तिनिकौं कैसैं ग्रहण करै है ? सर्वथा न ग्रहण करै ।
भावार्थ-कोऊ अज्ञानी मुनिक भी किंचित् परिग्रहका ग्रहण मानें ताकौं समझाइए है । अहो मुनिकै सर्व आशाका अभाव भया है एक आहार मात्र वांछा पाइए है। सो भी शरीर राखनेकै अर्थि आहारकौं चाहै है। जारौं विना आहार मनुष्य शरीर रहै नांही । बहुरि शरीरकौं भी तपकै अर्थि राखै है, जातै मनुष्य शरीर विना तप रहै नांही, सो भोजनकरि शरीरकौं राखि, तप ही कौं वधावै है। प्रमादी न हो है । बहुरि आचार शास्त्रविर्षे जैसैं विधि वर्णन है तैसें आहार मिले तो ग्रहै है। आशक्त होय सदोष आहार न ग्रहण करै है। बहुरि अन्य गृहस्थकरि दिया आहार ग्रहै है। आप न बनावै है वा अदत्त नाहीं ग्रहै है । बहुरि भक्ति करि दिया आहार ग्रहै है । याचना करि दातारकरि दातारकौं दवाय नांही ग्रहै है। बहुरि ऐसा भी आहार नित्य न ग्रहै है। योग्य कालवि वा केई उपवासनिकै पारणै ग्रहै है । बहुरि ग्रहै है तब भी संपूर्ण उदर भरि आहार नाहीं करै है। किछू थोरा भी भोजन करै है। ऐसैं आहार ग्रहै है, तो भी महंत मुनिकौं लज्जा उपजै है, सो हम इतनी चाहि करै हैं । सो हमारी हीनता है। बहुरि ऐसे भी कार्यविर्षे जाकै लाज होय सो धन वस्त्रादिक दुष्ट
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