SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधु ही आशाको तिलांजलि देनेमें समर्थ १०९ अर्थ-जो आशारूपी खानि निधिनतें भी अत्यंत अथाह होत भई सो भी आशा खानि जिसिकरि समानरूप भई सो तेरै घना मानरूपी धन जाननां । __ भावार्थ-धनादिककी चाह ताका नाम आशा है सोई भई खानि सो नव निधाननितें भी अथाह है। निधाननिविर्षे धनादिक काढेरौं निधान टूटे नांही । परंतु कदाचित् उनका तौ थाह आवै, बहुरि इस आशाविर्षे जो धनादिककी चाह पाइए है ताका थाह नाही । नव निधान मिलैं भी आशा बडी ही रहै है । तातें जानीये है, उन निधाननितें भी याकै भी अथाहपनां पाइए है । बहरि हे जीव! जो तेरै यह संतोषवत्तिकरि याचनादिरूप नम्रता न पाइए है, ताका नाम इहाँ मान है । सोई भया धन ताका प्रमाण ऐसा बहुत है जाकर वैसी आशा खानि समानरूप हो है। पूर्वोक्त मानधन भए आशाकै अधिकताका अभाव हो है । तातै नव निधाननितें भी अभिमानरूपी धनकौं बड़ा जानि संतोषरूप होइ धनादिकै अथि याचना' करनी योग्य नाही, जातें आशा मेटनेकै अथि धनादिक जाचिए है सो निधान पाए भी आशा न मिटै तो स्तोक धनादिकतै कैसैं यह मिटैगी। बहुरि संतोषवृत्तिकरि धनादिकै अर्थि नम्रीभूत न होना ऐसे ये परिणमन उपादेय है। ____ आगैं सो आशा खान मान धनकरि कैसैं समान भई ऐसे पूछे कहै आशाखनिरगाधेयमधाकृतजगत्त्रया । उत्सर्योत्सप्र्य तत्रस्थानहो सद्भिः समीकृता ॥१५७॥ अर्थ-यहु आशारूपी खानि है सो अथाह है । कैसी है यहु ? नीचे कीये है तीन जगत जानें ऐसी है । सो तिस आशारूपी खानिविर्षे तिष्ठते धनादिक तिनिकौं काढि काढि वह आशारूपी खानि सत्पुरुषनिकरि समान करी है, सो यह बड़ा आश्चर्य है। भावार्थ-पाषाणादिककी कोई खानि होय तामैंस्यौं पाषाणादिक काढि तिस खानिको अन्य भूमि समानि करना सो ही कठिन देखिये है। बहुरि यह आश्चर्य देखो यह आशारूपी खानि ऐसी तौ अथाह, जान तीन लोक नीचे कीए, तीन लोकको संपदा भी आशाविर्षे नीची है । अर आशा अधिक बड़ी है । सो ऐसी आशा खानि तामैं तिष्ठते पदार्थ तिनिकौं काढि काढि करि सत्पुरुष ताकौं समान करै हैं। भाव यहुः-आशाविर्षे अनेक पदार्थनिकी चाह पाइए है। तहां सत्पुरुष हैं ते त्याग भाव करि इसकी १. करनी योग्य नहीं । जाते आशा न मिटै तो. ज. १५६.२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy