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________________ साधुका दीन होना योग्य नहीं १०५ भावार्थ - जैसें हिरणकै अंगविषै बाण लाग्या होइ सो वह उसकी पीडातें व्याकुल हूवा कूदता फिरे, कहीं वन भूमिका विष स्थिर रहने कौं समर्थ न होइ । तैसैं ए भ्रष्ट मुनि मानौं तिनिकें अंतरंगविषै स्त्रीनिका कटाक्षरूप अवलोकन सोई कामवाण लगा है सो ए उसकी पीडातें व्याकुल हुये भ्रमरूप होय रहे हैं । कहीं विषयनिविषै मन लगावनेकौं समर्थ न हो हैं । कामकी तीव्रता करि धर्म साधन करना तो दूरि ही रहो, परन्तु देखना सूंघना सुनना इत्यादि विषयनिविषै भी मनकौं स्थिर नाहीं करि सके हैं । सो जैसैं पवन करि विघटाए हुये बादले चंचल हो हैं, तैसें विकार भावकरि भ्रष्ट कीए हुए मुनि चंचल हो हैं सो उनका तौ ह नहार ऐसा ही है, परन्तु हे भव्य ! ते किछू धर्मबुद्धि है तातें तोकौं सीख देवे हैं । ऐसे म्रष्टनिकी संगति तूं मति करै । जो संगति करेगा तो तूं भी उनका साथी होय दुर्गति कौं प्राप्त होगा । इहां भाव यहु जो भ्रष्ट मुनि संगति योग्य भी नांही है । आगें इन सहित संगतिकौ न प्राप्त होता जो तूं सो ऐसी सामग्री पाइ याचनां रहित हुवा तिष्ठ ऐसी सीख देता सूत्र कहै हैं वसंततिलका छंद गेहं गुहाः परिदधासि दिशो विहायः संव्यानमिष्टमशनं प्राप्तागमार्थ तव सन्ति गुणाः कलत्र तपसोऽभिवृद्धिः । मप्रार्थ्यवृत्तिरसि यासि वृथैव याञ्चाम् ।। १५१ ।। अर्थ – पाया है आगमका अर्थ जिहि ऐसे जीवको संबोध है । हे प्राप्तागमार्थ ? तेरै गुफा तौ मंदिर है । अर दिशानिकों तू पहरे है। आकाश असवारी है, तपकी बधवारी सो इष्ट भोजन है । गुण हैं ते स्त्री हैं । ऐसे नांही पाइये है काहू पासि याचने योग्य वृत्ति जाकी ऐसा तूं भया है । अब तूं वृथा ही याचनां प्राप्ति हो है । तोकौं दीन होना योग्य नांही । Jain Education International भावार्थ – लोकविर्षं इतनी वस्तुको चाहि भएँ याचनां करिये है । प्रथम तौं धनकौं याचं सो तें आगमका अर्थ सो ही अटूट सर्व मनोरथका साधनहारा धन पाया । बहुरि मन्दिरकौं याचे सो गुफा आदि स्वयमेव बनि रहे तेरै मंन्दिर पाइए है । बहुरि वस्त्रकों याचे सो तूं दिशारूपी वस्त्रक पहरे है, दिगम्बर भया है । बहुरि असवारी याचे सो आकाशरूपी असवारी तेरै पाइए है जहां इच्छा होय तहां गमन करि । बहुरि भोजनकौं याचे सो तपका बधनां सोई तेरै तृप्तिका उपजावनहारा इष्ट भोजन है । बहुरि For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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