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राजनीति और धर्मनीतिमें योग्य अयोग्य विकार १०३ नाश जाकै पाइए ऐसा होइ । बहुरि इस जीवतै अन्य जीव है सो तिसतें उल्टा दुर्गतिका साधन वृद्धि नाश होनेतें निर्बुद्धि है ऐसैं श्री गुरु कहा है
भावार्थ-लोकविर्षे धनादिककी वृद्धि भएं अर दरिद्रादिकका नाश भये जीवकौं बुद्धिमान मानीये है । बहुरि दरिद्रादिककी वृद्धि भएं अर धनादिकका नाश भएं निर्बद्धी मानीये है । सो यह तौ मिथ्या है । जातें ऐसा वृद्धि-नाशविर्षे तौ जीवका किछ कर्तव्य नांही। जैसा पूर्वोपार्जित पुन्य-पापका उदै हो है तैसा कार्य स्वयमेव सर्व जीवनिकै हो है । सो प्रत्यक्ष तौ कोऊ घनां बुद्धिवान् होइ सो भी दरिद्री देखीये है । कोऊ सर्व प्रकार मूरख होय सो भी धनवान देखीये है । बहुरि एक ही जीव जिस बुद्धि” घनां बुद्धिवान भया होइ सोई जीव तिस ही बुद्धि” निर्धन होता देखीये है । तातैं ऐसे वृद्धि-नाशविर्षं तौ बुद्धिका किछु प्रयोजन है नांही । इहां पुरुषार्थ मानना निरर्थक है । बहुरि सम्यक्त्वादिक धर्मरूप भावनिकी वृद्धि भए अर मिथ्यात्वादिक अधर्मरूप भावनिका नाश भए बद्धिवान् मानीये । अर मिथ्यात्वादिककी वृद्धि भए सम्यक्त्वादिकका नाश भए निर्बुद्धि मानीये, सो यह सत्य है। जातें ऐसा वृद्धि नाशविर्षे जीवका कर्तव्य है । जैसा अपनी बुद्धिका बिचार होइ तैसा कार्य जीवका कीया हुवा जीवकै हो है। सो प्रत्यक्ष कोऊ तौ तिर्यंचादिक भी अपनी बुद्धि” धर्म साधनकरि स्वर्गादिककों प्राप्त हो है । कोऊ राजादिक भी निर्बुद्धी होइ अधर्म साधनकरि नरकादिककौं प्राप्त हो है । तातें ऐसे धर्मका वृद्धि-नाशविर्षे ही बुद्धिका प्रयोजन जानि इहां ही पुरुषार्थ करना योग्य है।
आगैं जे सुगतिके साधन धर्मरूप भाव तिनकी वृद्धिके कारणहारे जीव हैं ते थोरे हैं ऐसैं दिखावता संता सूत्र कहै हैं
शिखरणीछंद कलौ दण्डो नीतिः स च नपतिभिस्ते नृपतयो . नयन्त्यर्थार्थ तं न च धनमदोऽस्त्याश्रमवताम् । नतानामाचार्या न हि नतिरताः साधचरिताः तपःस्थेषु श्रीमन्मणय इव जाताः प्रविरलाः ॥१४९॥ अर्थ-कलि कालविर्षे नीति तौ दंड है। दंड दीयें न्याय मार्ग चालै । बहुरि सो दंड राजानि करि हो है । राजा बिनां और देनेकौं समर्थ नाही। १. ऐसे वृद्धिनाश विसै. ज. १४८-३
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