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________________ विद्वान् और सदाचारी होनेकी कसौटी १०१ ग्रहण करना, अर मिथ्यात्वादिक दोष जिनकरि निपजै तिनिका त्यजन करना। ऐसे गुण दोषकी अपेक्षा लीयें जिनकै ग्रहण त्याग' पाईए है, अर अन्य कोई विषय कषायादिकका प्रयोजन जहां न पाईए ते जीव उत्कृष्ट ज्ञानी जानने । जातें ए अपना हित साधै हैं। बहुरि हित साधना सोई बुद्धिवानौंकै करने योग्य कार्य है। आगै अन्यथा ग्रहण त्याग विर्षे दूषण कहै हैहितं हित्वाऽहिते स्थित्वा दुर्थीदुःखायसे भृशं । विपर्यये तयोरेधि त्वं सुखायिष्यसे सुधीः ।। १४६॥ अर्थ हे जीव ! तूं हितकौं छोरि अहितविर्षे तिष्ठिकरि दुर्बुद्धि होत संता आपके अत्यंत दुःखकौं करै है। तातै तूं सुबुद्धी होत संता तिनका उल्टा भाव जो अहितको छोरि हितविर्षे तिष्ठना तिसविर्षे वृद्धिकौं प्राप्त होहु । ऐसैं तूं आपकै सुखकौं प्राप्त करैगा। भावार्थ हे जीव ! ( सम्यग्दर्शनादिक हितकारी गुणरूप कार्य ताका तौ त्याग कोया, अर मिथ्यादर्शनादिक अहितकारी दोषरूप कार्य ताका ग्रहण कीया सो ऐसे त्याग ग्रहणतँ तूं अनादिही दुखी भया है । सो तूं ही अपनी अवस्थाकौं विचारि देखि मैं कैसें परिणम्यां अर ताका फल मोकं कहा भया । बहुरि जै तूं तिसतै उलटा परिणमै, गुणका ग्रहण करै, दोषकों तजै तौ तूं अवश्य सुखी होइ । जाते कारण उलटा भएं कार्य भी उल्टा होइ ही होइ । जैसैं जल छोरि अग्निका सेवनि कीएं आताप हो है । बहुरि जे अग्नि छोरि जलका सेवन करै तौ शीतलता होय ही होय । तैसै इहां भी जिस अनादि परिणमननै दुखी भया है तिसतै उल्टा परिणमैं तो सुखी होय ही होय । स । अनादि तौ गुण छोरि दोष सेवन कीया । अब तोकौं दोष छोरि गुणका ग्रहण करना योग्य है। ___ आगैं कारण सहित गुण अर दौष जानें ऐसे हो है ऐसा दिखावता संता सूत्र कहै है शिखरणी छंद इमे दोषास्तेषां प्रभवनममीभ्यो नियमतः गुणाश्चैते तेषामपि भवनमेतेभ्य इति यः। त्यजस्त्याज्यान हेतून् झटिति हितहेतून प्रतिभजन् स विद्वान् सद्वृत्तः स हि स हि निधिः सौख्ययशसोः ॥१४७॥ १. ग्रहण दोष पाईए, ज• १४५, १ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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