________________
१००
: आत्मानुशासन .. अर्थ-गुण अर दोषका विवेक सहित जे सत्पुरुष तिनकरि अपना दूषण अतिशय करि प्रकट कीया हुवा भी बुद्धिवान जीवनिकै जैसे भला उपदेश प्रीति उपजावै तैसैं अत्यन्त प्रीतिकै अर्थि हो है। बहुरि धर्मतीर्थके न सेवनहारे ऐसे जीव तिनिकरि धीठपनाते किछू किया हुवा गुणानुवाद है सो भी तिनि बद्धिवानोंकै मननिकों नांही संतोष उपजावै है। इहां अन्यथापनौं भासै है सो यहु अज्ञानता खेदकारी है।
भावार्थ-जो जाका हित चाहै सो तो जैसे वाका भला होइ तैसें ही करै । तातें उस जीवकै बुरा होनेका कारण जो दोष ताके छुडावनेके अर्थि सत्पुरुष दोष भी प्रकट करै हैं । जो ए दोष न प्रगट करै तौ अज्ञानी जीव अपना दोषकौं कैसैं जानै । बहुरि बिना जानें दोषकौं कैसे छांडै । बहुरि जो जिसतै अपना लोभादिक प्रयोजन साध्या चाहे सो जैसैं वाकौं प्रसन्न होता जानैं तैसें ही करै । तातें उस जीवके दोषनिकौं भी धीठपनांत गण ठहराइ बडाई करै । जो ए बडाई न करै तो अज्ञानी जीवनिका मान कैसे बधै । बहरि याका मान न बधावै तौ यह उनका प्रयोजन काहे कौं साधै। ऐसैं सत्पुरुष दोष भी प्रगट करै अर अधर्मी बड़ाई भी करै है। तहां मूर्खको तौ दोष कहना अनिष्ट भासै है अर गुण कहनां इष्ट भारी है। बहुरि जे विवेकी हैं ते ऐसें जान है जो मेरा भला होनेक अथि दोष प्रगट करें हैं सो यहु दोषका प्रगट करना है सो ही मुझकौं भली शिक्षा है। ऐसैं विचारि तहां इष्टपनौं मानैं है । बहुरि जो ए अपना प्रयोजन अर्थि दोषकौं गण ठहरावै ते ए ठिग हैं । जो येह बडाई है सोई मेरे बुरा होनेका कारण है। ऐसैं विचारि तहां अनिष्ट मान है । तातै दोष कहै विवेकीनिकै आर्त्तध्यान होनेका भ्रम करनां नाही। ___ आगें दोष प्रगट कीयें दोष देखनेतै दोषका त्याग करना। अर गुण देखनेंत गुणका ग्रहण करना सो ही बुद्धिवानौंकू करने योग्य कार्य है ऐसा कहै हैं
त्यक्तहेत्वन्तरापेक्षौ गुणदोषनिबन्धनौ।
यस्यादानपरित्यागौ स एव विदुषां वरः । १४५॥ अर्थ-छोड़ी है अन्य कारणकी अपेक्षा जिनविर्षे, बहुरि गुण दोष ही का है कारण जहां ऐसे जे ग्रहण अर त्यागत तिस जीवकै पाइए सो ही ज्ञानीनिविर्षे प्रधान जाननां । ___ भावार्थ-काहूका ग्रहण करनां काहूका त्यजन करना ऐसे जीवनिकै प्रवृत्ति पाईए है। तहां सम्यग्दर्शनादिक गुण जिनकरि निपजै तिनिका तौ
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org