________________
कब कौन दुर्लभ और कौन सुलभ
आगे तैसी वाणीनिकरि धर्मके कहनेकौं अर अङ्गीकार करनेकौं सावधान ऐसे इस कालविषै प्राणी थोरे हैं ऐसा कहै हैं
लोकद्वयहितं वस्तु श्रोतुं च सुलभाः पुरा । दुर्लभाः कर्तुमद्यत्वे वक्तुं श्रोतुं च दुर्लभाः ॥ १४३ ॥ |
अर्थ - पूर्वे तो दोऊ लोकविषै हितकारी ऐसा धर्म ताहि कहनेंकों अ सुननें तो सुलभ थे । बहुरि करनेकौं दुर्लभ थे । बहुरि अब इस काल विर्षं कहनेकौं अर सुननेकौं भी दुर्लभ भए हैं ।
भावार्थ - जो धर्म इस लोकविषै अर परलोकविषै जीवको भलो करै ऐसे धर्मके कहनेवाले अर सुननेवाले पूर्वे चौथा कालविषै घने थे । अर अंगीकार करनेवाले तब भी थोरे ही थे, जातैं संसारविषै धर्मात्मा थोरे ही हो हैं । बहुरि अब यह पंचम काल ऐसा निकृष्ट है जिसविषै सांचे धर्मके कहनेवाले अर सुननेवाले भी थोरे ही पाइये है। कहनेवाले तौ अपने लोभमानादिकके अर्थी भये तातैं यथार्थ कहै नांही । अर सुननेवाले जड़वक्र भये तातें परीक्षा रहित हठग्राही होत संते यथार्थ सुनै नांही । बहुरि कहना सुनना ही दुर्लभ भया तौ अंगीकार करनेकी कहा बात ! ऐसें इस काल विर्षे धर्म दुर्लभ भया है सो न्याय ही है । यहु पंचमकाल ऐसा निकृष्ट है जा विषै सर्व ही उत्तम वस्तुनिकी हीनता होती आवै है, तौ धर्म भी तौ उत्तम है, याकी वृद्धि कैसैं होइ ? तातैं ऐसे निकृष्ट कालविषै जाकौं धर्मं प्राप्ति हो है सो ही धन्य है ।
९९
आगैं कोऊ संदेह करै कि दोऊ लोकविषै हितकारी धर्मं ताके कहनहारे श्रीगुरु तिनिकरि औरनिका दोषकौं कहि तिस' दोष निवृत्ति करावनी | सो तैसैं कीएं शिष्यकै अपना दोष प्रगट होनेंतें अनिष्टका संयोग भया तातैं वह आर्तध्यानी होइ किछू भी भला मार्ग विषै न प्रवर्ते सो ऐसा संदेह दूरि करत संता सूत्र है हैं
पृथ्वीछंद
गुणागुणविवेकिभिर्विहितमप्यलं दूषणं सदुपदेशव- मतिमतामतिप्रीतये ।
भवेत्
कृतं किमपि धाष्टयतः स्तवनमप्यतीर्थो षितैः
न तोषयति तन्मनांसि खलु कष्टमज्ञानता ॥ १४४॥
१. कहिकरि तिस. मु. १४३-२०
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org