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________________ आत्मानुशासन देश समान गुणकर्ता हो है । तातै दोष कहनकारा दुर्जन है सो इस अपेक्षा गुरुसमान कार्यकारी है । या प्रकार धर्मात्मा है. सो दोष छिपावनेवाला गुरुतै भी अपना दोष कहनहारा दुर्जनकौं भी भला जानैं है । इहां प्रश्नःजो दोष कहै मर्मछेद करनेंतें पाप भी तो हो है ? ताका समाधानः- जो ईर्ष्या दोषकरि बुरा करनेंकै अथि दोष प्रगट करै है ताकौं तौ पाप ही हो है। बहुरि जो करुणावंत होइ दोष छुडावनकै अथि दोष प्रगट करै है ताकौं पुन्य ही हो है । बहुरि प्रश्नः-जो दुर्जेनकौं तौ पाप ही हो है, वाकौं गुरु कैसैं कह्या है ? ताका उत्तरः-दुर्जन तौ पापी ही है, परन्तु इहां दोष छिपावनेंवाला गुरु दुर्जनतें भी बुरा है। ऐसा प्रयोजन लिए अलंकारकरि गुरु कहा है । परमार्थ तैं गुरु है नांही, ऐसैं धर्मात्मा दोष कहनेवालौंकों इष्ट मान है। आगें तर्क करै है:-जो शिष्यकै दोष कहे चिंता उपजै ताका निषेधकै अथि आचार्य हैं ते दोषकौं छिपाइकरि प्रवर्ते हैं ऐसा कहै हैं विकाशयन्ति भव्यस्य मनोमुकुलमंशवः ।। रवेरिवारविन्दस्य कठोराश्च गुरूक्तयः ॥१४२॥ अर्थ-कठोर जे गुरुकी वाणी ते भव्य जीवका मनकौं प्रफुल्लित करै है । जैसै कठोर जे सूर्यको किरण ते कमलकी कलीकौं प्रफुलित करै। . भावार्थ-श्री गुरु दोष छुडावनैंकौ वा गुणग्रहण करावनैकौं कदाचित् असूहावनें कठोर वचन भी कहै, तहां भव्य जीवका मन तिन बचननिकरि आनंदित ही हो है । वाकै चिंता खेद न हो है । जैसैं सूर्यको किरण औरकौं आताप उपजावनहारी कठोर है, तथापि कमलकी कलीकौं प्रफुल्लित ही करै है। तैसैं गुरुके वचन पापीको अपनी हीनता होनेकरि दुख उपजावनहारे कठोर हैं, तथापि धर्मात्माके मनकौं आनन्द ही उपजावै है । धर्मात्माकौं श्री गुरु दवाइ उपदेश देवै हैं । तब वह आपको धन्य मानै है । इहां कोऊ कहै:--कठोर उपदेश तैं पापी तौ दुःख पावै ? ताका उत्तर । जाकौं तीव्र कषायी पापी जानैं ताकौं कठोर उपदेश देत नाही, तहाँ माध्यस्थ भावनां भावै हैं । इहां तौ शिष्यको यह शिक्षा है-श्री गुरु भला होनेंकै अथि कठोर वचन कहै हैं । किछू उनकै ईर्ष्या प्रयोजन है नांही। तातै तिनकौं इष्ट जानि तहां आदर ही करना । १. भव्य जीवका मन तिन की कलीसौं प्रफुल्लित. ज. १४२-९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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