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दोष कहना ज्ञानीके हितमें आगें दोषकौं विद्यमान होतें ताकौं प्रकाशनेवाला अर आछादनेवाला ऐसा दुर्जन अर आचार्य तिनकै हितकारी अहितकारीपनांत' आराधनें न आराध का योग्यपनाकौं दिखावता संता सूत्र कहै हैं
__शार्दूलछंद दोषान् कांश्चन तान्प्रवर्तकतया प्रच्छाद्य गच्छत्ययं साधं तैः सहसा म्रियेद्यदि गुरुः पश्चात् करोत्येष किम् । तस्मान्मे न गुरुगुरुगुरुतरान् कृत्वा लघूश्च स्फुटं ब्रूते यः सततं समीक्ष्य निपुणं सोऽयं खलः सद्गुरुः ॥१४१॥ ___'अर्थ-कोई गुरु प्रवृत्ति राखनेका भावकरि शिष्यकै पाइए ऐसे ते केइ दोष तिनकौं छिपाइ करि प्रवत्र्त है। बहुरि जो यहु शिष्य तिनि दोषनिकरि सहित शीघ्र मरनकौं प्राप्त होइ तौ पीछे यह गुरु कहा करै । तातें ऐसा मेरा गुरु नांही । बहुरि जो दोष देखनेंविर्षे जैसैं प्रवीण होइ तैसें निरंतर नीकै अवलोकि मेरे थोरे दोषनिकौं बहुत घणे बधाईकरि प्रगट कहै है। ऐसा दुर्जन है सौ मेरा भला गुरु है। ___ भावार्थ-पूर्व सूत्रविर्षे दोषवानकी निंदा करी थी। तहां कोऊ कहै कि अवगुणग्राही होना युक्त नांही। आपकौं तौ गुणहीका ग्रहण करना । ताकौं कहिए है । जो आप दोषकौं भी धरै है अर अपना ऊंचापन भी राख्या चाहै है ताकौं दोष प्रगट करनहारा बुरा भासै है। बहुरि जो धर्मात्मा अपनी अवस्था” ऊंचापन प्रगट कीया न चाहै है अर कोई आपविषै दोष है ताकौं छोड्या चाहै है, ताकौं दोष प्रगट करनहारा बुरा नांही भासै है । सो इहां धर्मात्मा ऐसैं विचारै है, जे गुण दोषका ज्ञान तौ गुरु-उपदेश तैं हो हैं। बहुरि जे गुरु प्रवृत्ति करावनेका लोभतें जैसे अपना संप्रदाय बधै तैसें किया चाहै अर दोषनिकौं न कहै तो शिष्यको अपने दोषका ठीक न होइ, तब वह दोषकौं छांडै नांही। बहुरि जो ऐसे विचारै पीछ याका दोष छुडावेंगे, अर यह शीघ्र ही दोष सहित मरै कुगतिकौं प्राप्त होइ तव गुरु कहा करै ? तातें दोषकौं छिपावै सो गुरु नाही । बहुरि दुर्जन है सो थोरे दोषनिकौं भी अवलोकि तिनिकों घने कहिकरि प्रगट करै तब धर्मात्मा अपना दोष जानि ताके अभाव करनेकौं उद्यमवंत होइ । ऐसँ दोषका कहनां उप
१. हितकारीयनात. ज. १४-७
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