SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मानुशासन कालिमा दीसै है ताकरि वाकों कलंकी कहिकरि सर्व टोकै है । अर जो राहु सर्व ही काला है तौ वांका ऐसा ही पद जानि कोउ टोकै नांही । तैसें तं निर्मल ऊंची मुनि पदवीका धारक भया है। अर तेरै कोई किछु दोष भासै है ताकरि तोकौं कलंकी मानि सर्व टोकै हैं। अर जो नीचैकी गृहस्थ पदवीका धारक सर्वमल युक्त है तौ वाका ऐसा ही पद जानि कोऊ टोकै नांही । तातें चंद्रमाका मिसकरि याकौं सीख दई है तूं दोष सहित क्यों भया । अर जो दोष सहित होना था तौ सर्व ही दोष युक्त क्यों न भया । ऊची मुनिपदवी छोरि नीचली गृहस्थ पदवी ही अंगीकार करनी थी। रे! तूं केई ऊंची मुनि पदवीकी क्रियानिकौं साधैं है सो इनिकरि कहा साध्य है? एइ तेरै दोषकों प्रगट करै हैं । जो तूं भी गृहस्थ होइ तौ अन्य गृहस्थवत् काहूकरि टोकनें' योग्य न होइ । तातें हमारी यह शिक्षा है-जो ऊची मुनिपदवीकौं धारै है तौ दौषकौं मति धारै । अर दोषकौं धारे है तौ मुनि पदकौं मति धारे । आदिपुराणविर्षे भी ऐसा कथन है:-च्यारि हजार मुनि आदिनाथ स्वामीकी साथि दीक्षा लेइ भ्रष्ट भए, तब तिनकौं देवता कहते भये । इस पदवीविर्षे ऐसा भ्रष्ट आचरण करोगे तो हम दंडेंगे। इस पदवीको छोरि जैसे रुचै तैसे करौ। इहां कोऊ कहै लोक तौ जैसैं कहै, तैसैं कहौ, परन्तु फल तो जेता गुण दोष होइ तेता ही लागैं, ताका उत्तर षट्पाहुड विर्षे ऐसा कह्या है जहजायरूवसरिसो तिलतुसमित्तं ण गहदि अत्थेसु । जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोयं ॥ अर्थ-यथाजातरूप सदृश नग्न मुनि है सो पदार्थ निविर्षे तिलका तुष मात्र भी न ग्रहण करै । जो थोरा बहुत ग्रहण करै तौ तिसत निगोद जाय। सो इहां देखो गृहस्थ तो बहुत परिग्रहका धारी थोरासा धर्म साधै तो भी शुभ गति पावै । अर मुनि थोरासा भी व्रत भंग करै तौ निगोद जाइ। बहुरि न्याय भी ऐसे ही है। अनशनतप धारि अन्नका दाणा भी ग्रहै तो पापी होइ । बहुरि अनशन व्रत ना धारै, अर अवमौदर्य विर्षे तिसत घणां भी भोजन करै तौ धर्मात्मा होइ । ऐसे यह बात सिद्ध भई। दोष सहित ऊंची पदवीतें नीचैकी पदवी ही भली है। तातै दोष लगाइ ऊंची पदवीकौं बिगारना योग्य नाही। १. ग्रहस्थवत् टोकनें. मु. १४०-१५ २. उचा मुनिपदको- ज. १४०-४ ३. ऐसा आचरण मु. १४०-२० ४. ग्रहस्थ परिग्रहका. मु. १४०-५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy