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आत्मानुशासन
आगैं तिस पूर्वोक्त' कारणतें मनकौं जीति विवेकी पुरुषनिकरि भला तप ही करना योग्य है । तिस तपकौं करता जीवकै परम पूज्यपनांकी सिद्धि हो है, ऐसा कहै हैं
श्रग्धरा छंद
राज्यं सौजन्ययुक्तं श्रुतवदुरुतपः पूज्यमत्रापि यस्मात् त्यक्त्वा राज्यं तपस्यन्न लघुरतिलघुः स्यात्तपः प्रोह्य राज्यम् । राज्यात्तस्मात् प्रपूज्यं तप इति मनसालोच्य धीमानुदग्र कुर्यादार्यः समग्र प्रभवभयहरं सत्तपः पापभीरुः || १३८ ||
अर्थ — जातैं सुजनता जो नीतिता करि सहित तौ राज्य अर शास्त्रज्ञानसहित तप, ए दोऊ पूज्य हैं । बहुरि इनि विषै भी जो राज्यकौं छोरि तप करै है सो तौ लघु नांही हो है, उत्तमपनौ पावै है । अर जो तपकों छोरि राज्य करै है सो अत्यंत लघु हो है, नीचपनौं पावै है । तातैं राज्यतें भी तप है सो प्रकर्षपनें पूज्य है । ऐसें मनकरि विचारि पापतैं भयभीत बुद्धिवान् आर्य पुरुष है सो सर्व प्रकार संसार भयका दूरि करनिहारा जो पति क है ।
भावार्थ – लोकविषै दोय प्रधान हैं । एक तौ नीतिसहित राज्य अर एक ज्ञानसहित तप । बहुरि जो राज्य छोरि तप करै सो तौ वंद्य हो है । अर तप छोरि राज्य करै सो अति निद्य हो है । तातैं यहु निश्चय है राजतैं भी तप विशेष प्रधान है, सो प्रत्यक्ष देखिये है, राजा तपस्वीकौ वंदै, अर तपस्वी राजाकौं वंदे नांही । सो ऐसें विचारि जो ज्ञानी जन संसारतें डरया है सो राजकौं तौ पापरूप संसारका कारण जांनि अर . तपकौं संसार दुःखका हरनहारा जानि तप ही कों अंगीकार करे है ।
आगैं तप है लक्षण जाका ऐसा गुणका नाशतें लघुपनौं हो है । इस ही अर्थकौं दृष्टांत द्वारकरि दिखावता संता सूत्र कहै हैं
पुरा शिरसि धार्यन्ते पुष्पाणि विबुधैरपि । पश्चात् पादोऽपि नास्प्राक्षीत् किं न कुर्याद् गुणक्षतिः ॥ १३९ ॥
अर्थ – पहलें जब सुगंधादिक गुण होइ तब तौ फूल हैं ते देवनिकरि भी मस्तक विषै धारिये हैं । बहुरि पीछें गुण जाते रहै तब तिन फूलनिकों
१. आगें पूर्वोक्त मु० १३७ - २६
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