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मनको जीतनेका उपाय
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आगे स्त्रीका शरीर विषै प्रीति है सो मन पूर्वक है । बहुरि मन नपुसंक है । ज्ञानी पुरुष है सो तिस नपुसंक करि तिनि पुरुषनिका जीतना कैसे बने है ऐसा कहैं हैं—
पृथ्वी छन्द
प्रियामनुभवत् स्वयं भवति कातरं केवलं परेष्वनुभवत्सु तां विषयिषु स्फुटं ह्लादते । मनो ननु नपुंसकं त्विति न शब्दतश्चार्थतः । सुधीः कथमनेन सन्नुभयथा पुमान् जीयते ॥ १३७॥
अर्थ - मन है सो स्त्रीकौं भोगवतां आप तो केवल कायर हो है किछू वाकौं भोगिसकै नांही । बहुरि अन्य जे विषयी स्पर्शनादि इन्द्रिय तिनकों 'भोगवतै सन्तें प्रगट हर्ष करे है । तातैं यहु मन है सो केवल शब्द ही तें नपुंसक नहीं है अर्थतैं भी नपुंसक ही है । बहुरि भली बुद्धिका धनी ज्ञानी है सी दोऊ प्रकार शब्दतें भी अर अर्थतें भी पुरुषलिंग है । सो इस मन करि कैसे जीतिए है, अपितु न जीतिए है ।
भावार्थ – कोऊ कहैगा मन विकारी होइ जाइ तब विवेकी कहा करे ? ताकौं युक्ति कर समझाइए है । मनः ऐसा शब्द व्याकरण विषै नपुंसक लिंगी का है । सो मन शब्द ही तैं नपुंसक लिंगी नांही है, अर्थतें भी नपुंसक ही है । जैसें नपुंसक स्त्री भोगवनेकौं चाहै परन्तु आप भोगि सके नही । अन्य पुरुष भोगवै तिनकी क्रीडा ही देखि आप हर्ष करै । तैसें यहु मन स्त्री भोगवनेकौं चाहै, परन्तु आप भोग करि सकै नांही, स्पर्शनादि इन्द्रियभोग करै तिनकी क्रीडा ही देखि आप हर्ष करे है । ऐसे मन तौ शब्दतें अर अर्थतैं दोऊ प्रकार नपुंसक है। अर सुबुद्धि है सो सुधी ऐसा शब्द व्याकरण विषै पुरुषलंगी है । तातैं शब्दतें भी पुरुष है । अर सुष्ठु बुद्धि ath पाइए ऐसा का अर्थ है । सो स्त्री का धनी पुरुष ही होइ, स्त्रीकै स्त्री बनैं नांही । तातैं अर्थतैं भी पुरुष है । सो सुधी पुरुष पुरुषार्थकौं संभारे तौ मन नपुंसक करि हारै नांही । मन नपुंसक इस सुधी पुरुषकौं कैसें जीते ? तातैं मनकौं बलवान मानि आपको पुरुषार्थं न छोड़नां । पुरुषार्थ करि मन विकारका अभाव ही करना योग्य है ।
१. तिनकों तिस स्त्रीकों भोगवतं - मु० १३७-५
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