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आत्मानुशासन
अर्थ – रुद्रकै कण्ठविषै तिष्ठ्या हुवा कालकूट विष है सो भी किछू न करत भया । बहुरि ऐसा भी रुद्र है स्त्रीनिकरि संतापित कीजिए है । तातें स्त्री है ते अन्य विषनितें भी विषम विष है ।
भावार्थ - लोकविषै कालकूट विष समान और निरुपाय अनिष्ट नांही ऐसा कहिए हैं । सो ए स्त्री है ते तिसतें भी विषम हैं अत्यन्त निरुपाय अनिष्ट हैं | देखो महादेव कालकूट विषकूं कंठविषै राखता भया ताकै वह कछू भी अनिष्ट न करता भया । बहुरि स्त्री है ते तिसकौं भी काम पीडित करि आताप उपजाया । तातै कालकूट तैं भी स्त्रीका विषमपनां जानि जे विषक अमृत बतावे हैं, ऐसे ठिगनि तैं भी जे स्त्रीनिविषै अनुराग करावे हैं ते महा ठिग जाननें । उनके वचननितें स्त्रीनिविषै अनुराग न करना । आगें ऐसा स्त्रीका शरीरविषै चन्द्रमादिकका स्वभाव स्थापनेंतैं प्राणीनिकै आशक्तता हो है सो झूठी है ऐसा कहै हैं—
मालिनी छन्द
तव युवतिशरीरे सर्वदो पैकपात्रे रतिरमृतमयूखाद्यर्थसाधर्म्यतश्चेत् ।
ननु शुचिषु शुभेषु प्रीतिर ष्वेव साध्वी
मदनमधुमदान्धे प्रायशः को विवेकः ।। १३६ ।।
अर्थ – हे प्राणी ! सर्वं दोषनिका पात्र ऐसा जु स्त्रीका शरीर तिस विषै चन्द्रमा आदि पदार्थनिकै समान स्वभाव माननैतैं जो तेरै प्रीति पाइए है, सौर चन्द्रमा आदि पदार्थ शुचि हैं, अर शुभ हैं । इनि ही विषै प्रीति करनी भली है, परन्तु कामरूपी मदिराका मदकर जो आंधा भया तिसविषै कहा विवेक है ?
भावार्थ - खोटे कवि स्त्रीकै अंगनिविषै चन्द्रमा कमलादि पदार्थनिकी उपमा देइ अनुराग करावे है । तूं काम मदिराकरि आंधा भया तोकौं किछू दीखै नाँही । ए हाड मांसके बने अंग तिनकौं चन्द्रमादिक्रका समानपनां कैसे बनें ? बहुरि जो तेरी बुद्धिविषै चन्द्रमादिककी उपमा बने है तो जिनकी उपमा दई है ते तो इस तैं किछू भले होहिंगे । बहुरि स्त्रीके अंग तौ अपवित्र हैं अर बुरे हैं । अर चन्द्रमादिक पवित्र हैं भले हैं। तातैं चन्द्रमादिकनि ही विषै अनुराग क्यों न करे ? परन्तु जैसे कोडा विष्टाविषै रति मानें तैसें तू कामी स्त्रीनि अंगनिविषै ही रति माने है । कामान्धकौं भले बुरेका विवेक होता नाहीं । तातैं कामान्धपनां मेटि विवेकी होना योग्य है ।
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