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कामकी महिमा
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उपमाकरि यहु
कामका वास हैं । इहां रति मानें ताकौं काम मोहित करै । ऐसे अनेक योनि - छिद्र अनिष्ट है । तातैं इहां राग न करना । शार्दूल छन्द अध्यास्यापि तपोवनं वत परे नारीकटीकोटरे व्याकृष्टा विषयैः पतन्ति करिणः कूटावपाते यथा । प्रोचे प्रीतिकरीं जनस्य जननीं प्राग्जन्मभूमि च यो व्यक्तं तस्य दुरात्मनो दुरुदितैर्मन्ये जगद्वञ्चितम् || १३४ ||
अर्थ — हा हा धर्मतें न्यारे भए ऐसे कोई जीव तप करनेका स्थानक वन ताकौं प्राप्त होइ करि भी विषयनिकरि प्रेरे हुए जैसे हाथी कपटकरि बनाया खाडा विषै प तैसैं स्त्रीका कटि - छिद्रविषै पडे हैं । सो मैं ऐसे मानौं
- ये योनि है सो या मनुष्यकी पहलें जन्म भूमिका है तातें माता है । अर याकों प्रीति करनहारी जो कुकवि कहत भया तिस दुष्टात्माके दुष्ट वचननि करि यहु जगत ठिगाया है ।
भावार्थ - जैसैं हाथी वनविषै स्वाधीन रहे है, उनकों पकड़नेके अर्थि कोई पटक खाडा बनावे, तहां विषय सेवनका लोभ तैं ते हाथी ति खाडे विषै पडिकरि नाना कष्ट सहे । तैसैं मुनि वन विषै स्वाधीन हैं। इनके भ्रष्ट करनेको कारण स्त्रीका योनिस्थान है । तहां विषय सेवनका लोभतें तिस योनिविषै रमते सन्ते इस लोक परलोकके घनें कष्ट सहे हैं । इहां आचार्य कहै हैं— जीवके काम विकार तो था ही, परन्तु कोई शिक्षा देनेवाला मिलै तौ कामविकार घटे । सो खोटे कवीश्वर अनेक युक्ति
स्त्री अंगनिकों रमणीक दिखाय विकार बधावै है सो उनके वचननिकरि ठिगाया हुवा जीव चेते नांहीं । बहुरि देखो कुकविनिकी धोता जिस योनि स्थान विषै अपना जन्म भया ताहीकौं रमणेका स्थान बतावै है । ता कुकविनि बहका स्त्रीकी योनिविषै रागी मति होहु । रागी भए महा कष्ट पावोगे । ऐसी इहां सीख दई है ।
आगै विषय विषै जो अमृत बुद्धिकरि प्रवृति करावै है सो ठिग कहिए । इहां तौ ए स्त्री पुरुषनिकै भी संतापादिक दुःखका कारण हो है ? तैं बड़ा विष है ऐसा कहै हैं
कण्ठस्थः कालकूटोऽपि शम्भोः किमपि नाकरोत् । सोऽपि दन्दद्यते स्त्रीभिः स्त्रियो हि विषम वषम् || १३५ ।।
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