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________________ आत्मानुशासन बहुत कालपर्यंत तप करनां सो यह ज्ञान ही का माहात्म्य है। ज्ञान न होइ तौ अति उग्रताकरि शरीरका नाश करै पीछे देवादिक पर्याय पावै, तहां संयमका अभाव होइ, सो ज्ञानी औसैं नाहीं करै हैं। क्षणार्धमपि देहेन साहचर्य सहेत कः । यदि प्रकोष्ठमादाय न स्याद्वोधो निरोधकः ।।११७।। अर्थ-जो ज्ञान हाथका पौंचा पकडि रोकनहारा न होइ तौ कौन मुनि आधा क्षणमात्र भी शरीरसहित साथि रहनांकौं सहै ? कोई न सहै। भावार्थ-जैसैं काहुकै काहुसौं मित्रता थी, पीछे वाकौ दुष्टपनौं जान्यौ, तब वातें लडिकरि वाका साथकौं तत्काल छोडना चाहै। तहां कोई स्याना पुरुष वाका हाथका पौंचा पकडि समझावै सैं तो ल. यहु आगामी दुखःदायक होगा । तातें कोई दिन याकौं साथि राखि निबलकरि याका जैसे सत्यानाश होइ तैसै कार्य करना योग्य है। तैसैं आत्माके शरीरसौं अनुराग था, जब याकौं दुःखका कारण जान्या तब याकौं उग्र आचरनतै नाश कीया चाहै । तहां जिनवानीजनित ज्ञानतें यह विचार आया, ऐसैं कोएं तो बहुरि देवादिपर्याय पावनां होगा,तहां द्रुःख उपजैगा ।। तातै कितनेक काल याकौं साथि राखि निर्बल करि जैसें बहरि शरीर धरना न होई तैसैं कार्य करना योग्य है । जैसें ज्ञान रोकनहार न होइ तौ कौन मुनि शरीरका साथि राखै ? जो बुरा जानिकरि भी प्रयोजनकै अर्थि शरीरका साथि राखिये है सो यहु ज्ञान ही की महिमा है। आगें इस ही अर्थकौं दृष्टांत द्वारकरि दृढ करत संता समस्त इत्यादि दोय श्लोक करि कहै है शिखरिणी छन्द समस्तं साम्राज्यं तृणमिव परित्यज्य भगवान् तपस्यन्निर्माणः क्षुधित इव दीनः परगृहान् । किलाटद्भिक्षार्थी स्वयमलभमानोऽपि सुचिरं न सोढव्यं किं वा परमिह परैः कार्यवशतः ।।११८॥ अर्थ-श्री आदिनाथ भगवान् सो समस्त बडे राज्यकौं तिणा कीसी नाई छोरि तप करता मान रहित भूखा दीनवत् भोजनका अर्थी हुवा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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