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जीवनकी सफलता
खिखरणी छंद तपोवल्ल्यां देहः समुपचितपुण्योर्जितफल: शलाट्वग्रे यस्य प्रसव इव कालेन गलितः । व्यशुष्यच्चायुष्यं सलिल मिव संरक्षितपयः
स धन्यः संन्यासाहुतभुजि समाधानचरमम् ॥११५॥ अर्थ-जाका शरीर है सो तपरूपी वेलिविर्षे निपजाया है पुण्यरूपी उत्कृष्ट फल जानैं, औसा होत संता जैसै काचा फलका अग्र भागविष फूल झरि परै तैसैं काल पाइ करि गल्या है-विनष्ट भया है बहुरि जाका आयु है सो समाधिरूप भया है अंत अवस्था जाकी औसा होत संता संन्यासरूपी अग्निविर्षे राखि लिया है दूध जानें जैसा जलकीसी नाई सुसता भया सो जीव धन्य है।
भावार्थ-जैसे वेलिवि फूल लागै सो काचा फल निपजाय आप झरि परै तैसैं जिनका तपविर्षे शरीर प्रवर्त्या होइ सो पुण्येकौं निपजाय काल पाइ आप नष्ट हो है । बहुरि जैसैं अग्नि संयोग होतै जल है सो दूधकौं राखि आप सुसै तैसैं संन्यास होतें जिनका आयु है सो धर्मकौं राखि आप शोषित हो है, अँसै शरीर अर आयु जिनका सफल हो है ते पुरुष धन्य हैं। __ आगें परम वैराग्यकरि संयुक्त जीव अपवित्र अर दुःखदायक जो शरीर तिसविरे वांका पालना वाँकै संगि रहना औसै करि तप करै है तिनके जो कारण हैं ताकौं दोय श्लोक करि कहै है
अमी प्ररूढवैराग्यास्तनुमप्यनुपाल्य यत् । तपस्यन्ति चिरं तद्धि ज्ञातं ज्ञानस्य वैभवम् ॥११६।। अर्थ-ए उत्कृष्ट वैराग्य जिनकै पाइए औसे जीव जो शरीरको भी पालि चिरकालपर्यंत तप करै हैं सो हम यह ज्ञानकों प्रभुत्व जान्यों है ।
भावार्थ-जिसतै उदास हजै ताका पालना विरुद्ध है। परन्तु स्याना होइ सो वांकै पालें ही अपना प्रयोजन सधता जानैं तो अपना प्रयोजन जैसै सधै तैसें वाकौं पालै, अनुरागकरि वाकौं अधिक पोषै नाहीं । सो महामुनि शरीर” उदास भए हैं। परन्तु इनिकै जैसा ज्ञान है जो मनुष्य शरीर रहै तप हो है । तारौं आहारादिक देइ याकौं अपना प्रयोजनकैअर्थि राखै है । अनुराग करि याकौं बहुत नाहीं पोषै है । औसैं शरीरकौं राखि
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